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________________ अहो, मेरी ही अनादि-अनन्त वासना, मेरा ही चिर अतृप्त काम, सारी प्रकृति में हिंसा बन कर व्याप्त है ! वनस्पति, कीट-पतंग, सरिसृप, पशु-पंछी, मगर-मत्स्य और मानवों की जगतियों में सदा समान रूप से जारी परस्पर मार-फाड़, संघर्ष, युद्ध, हत्याएँ, रक्तपात । सारी सृष्टि में निरन्तर चल रही हिंसा, केवल मैंआम्रपाली ! मेरा अपराजेय काम। ओ ज्ञानी गरुड़, क्या तुम उसे पचा सकोगे? दमित और शमित कर सकोगे? अपने आरोही विष्णु से पूछो, क्या वह अपनी कमला की मोहिनी के गुंजल्क में कैद नहीं? मेरी देह के कमलकोश की पाँखुरियों में से ही, अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड हर पल उठ और मिट रहे हैं। ० "पर क्या तुम मेरी हिंस्र वासना को ही देखोगे? मेरे अगाध सौन्दर्य और मदन को नहीं देखोगे? .. देखो देखो देखो-दिगन्तों तक फैला मेरे सौन्दर्य का यह आँचल । “यह क्या हुआ ? वह रक्ताक्त विनाश-लीला कहाँ लुप्त हो गई ? .. औचक ही क्या देखती हूँ, कि छहों ऋतुएँ अपने-अपने फूलों की रंगीन रज उड़ाती हुई मेरे आसपास भाँवरे दे रही हैं। मेरी नग्न देह की रातुल आभा में, किंशुकों के सिन्दूरी वन फूले हैं। मेरी बाहुओं में सर्पवलयित चन्दन-लताएँ लिपटी हैं। मेरी जंघाओं के कदली-वन में अगाध कोमलता ज्वारित है। बेला, चमेली, कुन्द, कचनार, कामिनी और मल्लिका के फूलों छायी वन-शैया पर लेटी हूँ। प्रियंगु और माधवी लता के हिण्डोले में दोलायित हूँ। मेरे केशों की मंजरित अमराइयों में कोयल गा रही है। मेरी काया के आकाशी समुद्र-किनारों में श्वेत काश लहलहा रही है। मेरे कन्धों पर उगे लोध्रवन से झरती सुवर्ण रेणु मेरा अंगराग हो गई है। मेरे चारों ओर घिरे सिन्धुवार, कर्णिकार, सहकार, अशोक और शिरीष वृक्षों के वन। उनमें, झरते मकरन्द की पीली-केसरिया नीहार छायी है। मेरे ऊपर झुक आये मन्दार, पारिजात, कांचनार, और पाटल वृक्षों से बरसते पराग ने मेरे उरोज-देश पर एक घनी-भीनी चादर-सी बिछा दी है। और उसके आई रस में भीजा हुआ, एक चक्रवाक-मिथुन मेरे वक्षोजों के गहराव में रतिलीन है। मेरी आँखों में नीलोत्पलों से भरे सरोवर लहरा रहे हैं। मेरे कपोलों में पद्मवनों की गुलाबी खमारी छायी है। मेरे स्तन-तटों पर घहराते समुद्र में, मेरी तमाम शिराओं की नदियाँ आ कर मिल रही हैं। मेरे रोमों में कदम्ब और केतको फूलों को राशियाँ रोमांचित हैं। . देख रहे हो गरुड़, मेरा काम केवल हिंसा ही नहीं, वह सौन्दर्य भी है। मेरी उद्दाम वासना केवल विनाश ही नहीं, सृजन भी है। रस, माधुर्य और आनन्द का उत्सव भी है। मेरी पृथ्वी पर केवल मार की विनाश-लीला ही नहीं, नितनव्यता का शाश्वत वसन्तोत्सव भी चल रहा है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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