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वाला षोडष-दल कमल । उसकी बहुत महीन, कचनार फूलों के रंग की हलकी जामुनी पाँखुरियों के केसर-तन्तु रक्ताभ हैं। इस कमल के सोलह दलों पर अंकित सिंदूर वर्णी सोलह स्वर-अं,आं,इं,ई,उ,ऊं,ऋ,ऋ,लू, ल,एं,ऐं, औं,अं,अ:--केशर की महक जैसी ध्वनि में गुंजित हो रहे हैं।
'फलावरण में देख रही हूँ नभो-मण्डल, अन्तरिक्ष देश। पूर्ण चन्द्र-सा गोलाकार उज्ज्वल, श्वेताभ। हिम-श्वेत हाथी पर अम्बर-बीज 'हं' आरूढ़ है। श्वेतांग, श्वेत-वसन, अन्तरिक्ष से आवरित । उसकी गोद में विराजित हैं कर्पूर-गौर, हिम-कान्ति सदाशिव महादेव । त्रिनयन, पंचमुख, दशभुज, व्याघ्रचर्म धारण किये हुए। वे अर्धनारीश्वर, गिरिजा के उत्संग में नित्य निरन्तर आलिंगित हैं। उनका आधा शरीर हिमानी रंग का है, और दूसरा अर्धांग केशरिया सुवर्ण कान्ति से दीप्त है। ये भस्मालेपित, सर्पमाला धारण किये शिव वृषभारूढ़ हैं : अपनी दश-भुजाओं में त्रिशूल, परशु, खड्ग, वज्र, आग्नेयास्त्र, नागेन्द्र, घण्टा, अंकुश तथा पाश धारण किये हैं। और अभय मुद्रा में एक हाथ उठाये हैं। इस कमल की अधीश्वरी शाकिनी शक्ति, उनके वामांक में विराजित हैं, और सान्द्र स्मित से मुस्करा रही हैं। उनके पीत वसनों से केशर सुवासित हो रही है। फलावरण में है सम्पूर्ण चन्द्र-मण्डल, शशक-चिह्न से मुक्त, अकलंक। __ ..मेरे कण्ठ में यह कैसा अमृत-सा मधुर मकरंद झर रहा है ! सारी चेतना, इन्द्रियाँ, शरीर उसमें भींज कर, अपने ही आप में लीन एकस्थ, एकाग्र हो गये हैं। "मैं ही नारी, मैं ही पुरुष। मैं ही योनि, मैं ही लिंग। बाहर से कहीं कुछ पाने को शेष नहीं। और तुम मेरे स्वामी, तुम ? मेरी ही आत्म-योनि के सरोवर से उद्भिन्न एक कमल-कोरक । जिसने मुझ कामांगिनी में रमणी देह धरना स्वीकार कर लिया है। मैं ही रमणी, मैं ही रमण । 'अपने को देख रही हूँ, कि तुम्हें देख रही हूँ, कहना सम्भव नहीं रह गया है। और इस अपलक निरन्तर अवलोकन में, त्रिकाल और त्रिलोक एक चित्रावली से खुलते जा रहे हैं।
सहसा ही यह क्या हुआ, कि तुम्हारे ग्रीवालिंगन में गुंथ गई हूँ। और तुम्हारी भस्मालेपित जटाओं में सोये सर्प जाग कर, सौ-सौ फणाएँ उठा कर फूत्कारते हुए अन्तरिक्षों पर पछाड़े खा रहे हैं। मेरे विप्लवी दिगम्बर, तुम्हारे पुण्य-प्रकोप से तीनों लोक कम्पित हो रहे हैं। तुम्हारे भ्रूभंग से प्रस्फोटित वह्नि में, आसुरी सत्ता और सम्पत्ति के दुर्ग भस्मसात् हो रहे हैं। ब्रह्मा, विष्णु, हरिहर, सूर्य, कात्तिकेय, इन्द्र-कोई तुम्हारे इस वैश्वानर को प्रतिरुद्ध नहीं कर सकता।
अहा, तुम अनाचार के तमाम भेदी ख़नी अन्धकारों को विदीर्ण कर, सत्यानाशी वात्याचक्र की तरह नाच रहे हो। मेरी कटि को अपने पदांगुष्ठ
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