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________________ पर्वत की चोटी से, नीचे की अतल पाताली खन्दक में फेंक दिया। वहाँ असंख्य रात्रियों के पुंजीभूत अन्धकार जैसी रज मुझ पर धारासार बरसने लगी। मेरी इन्द्रियाँ कहीं किसी केन्द्र में कीलित हो गईं। और फिर नाना अत्याचारों, प्रहारों, पीड़नों का एक अटूट सिलसिला चल पड़ा। ___मेरे रोम-रोम में हजारों लाल चीटियाँ चिटकती हुई रेंगने लगीं। मेरी जाँघों में कनखजूरों, केंकड़ों, मगर-मच्छों, गोहों, छिपकलियों के जंगल उग आये। मेरी शिरा-शिरा में दंश करते बिच्छुओं की नदियाँ-सी बहने लगीं। मेरी कटि मानो पाताली अजगरों की गुंजलक में जकड़ गई। मेरे नाभिदेश में से उठी आ रही नागिनों पर कई नकुल टूट पड़े, और उन नागिनों को निगल कर, उनके विष को वे अपने तीखे दाँतों से मेरी नाभि में सींचने लगे। भयंकर फणिधर भुजंगम मेरी छाती और भुजमूलों से लिपट कर, एक अदम्य वासना से मेरी रग-रग में दंश करते चले गये। "देखो देखो वह सब मैं इसी क्षण फिर झेल रही हूँ। चिंघाड़ते व्याघ्र और भेड़िये मुझ पर टूट रहे हैं। एक दिगन्त व्यापी पिशाच की कराल कैंची जैसी जाँघों में, मैं जकड़ी और कतरी जा रही हूँ। कोई मेरे पैरों को चूल्हा बना कर, उस पर भात पका रहा है। ब्रह्माण्डों को उलटते-पलटते कालचक्र में मुझे डाल कर, कोई मुझे यमलोक की मरण-चट्टान पर पछाड़ रहा है। यह क्या देख रही हूँ मैं ! सारी वैशाली प्रलयकारी आग की लपटों में धू-धू जल रही है। और आम्रपाली दुर्दान्त रुद्राणी की तरह, एक तुंग काय दिगम्बर पुरुष की छाती पर पैर धर कर ताण्डव नृत्य कर रही है। स्वामी, स्वामी, त्राण करो, उगारो मुझे इस पैशाची लीला से ! मेरी इन अपावन टाँगों से अपनी छाती का दलन करवा कर, तुम क्या सारी वैशाली को अपनी तपाग्नि से भस्म कर देना चाहते हो? केवल मुझे बरसों-बरसों, कल्पों तक जला कर, क्या तुम्हारा महाकाल शंकर तृप्त न हो सका? "अरे अरे देखो न, यह क्या किया तुमने ? तुम्हारे एक इंगित पर सारे देव, दनुज, मनुज--पुरुष मात्र, एकाकिनी आम्रपाली की छाती पर चढ़ कर, उसके साथ बलात्कार कर रहे हैं। मुझे सारी त्रिकालिक सृष्टि की वासना का हवन-कुण्ड बना दिया तुमने ?' नहीं, नहीं, झूठ है यह। कोई दानव-लीला है यह। नहीं, तुम नहीं, तुम नहीं, तुम्हारा रूप धर कर कोई असुर ये सारे अत्याचार मुझ पर कर रहा है। पूर्ण प्रत्यय होते ही मैं स्थिर, शान्त निश्चल हो गई हूँ। मेरी साँसें मुक्त हो गई हैं। मैं अपनी मन्दार-शैया में वैसी ही सुखासीन लेटी हूँ। कि यह कौन कामदेव सहकार मँजरियों का धनुष ताने, मुझ पर आक्रमण कर रहा है ? .."अरे, यह तो तुम्ही हो। तुम्हारा ही वह जितानंग सौन्दर्य ! और तुम तुम यह सब क्या कर रहे हो मेरे साथ ? अकल्पित, अतयं ।"नहीं, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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