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________________ १४ वहाँ की समवसरण - यात्रा भी सहज और अनायास ही हो सकती थी ।'''' और फिर लौटती परिक्रमा में पूर्वीय महाचीन भी क्यों नहीं, जहाँ उस काल उस बेला लाओत्स् और कन्फ्यूसियस बोल रहे थे । संवत्सरिक काल में कुछ दशकों का अन्तर रहा भी हो, तो उसे मैंने इस ग्रंथ में नगण्य कर दिया है, और एक अखण्ड महासमय की धारा में अतिक्रमण कर गया हूँ । महावीर का समवसरण ग्रीस, इस्रायेल, पारस्य, महाचीन आदि तक गया या नहीं, इसका निर्णय मैंने इतिहास पर नहीं छोड़ा है । इतिहास बेचारे की क्या हस्ती, जो महाकालेश्वर महावीर के सारे विहारों, प्रस्थानों और क्रियाकलापों को समेट सके, या उनका पारदर्शन कर सके । वह तो कोई विज़नरी रचनाकार ही, अपने कल्प - वातायन से कर पाता है, क्योंकि वह कालभेदी भूमा का साक्षात्कारी होता है । पंचम खण्ड में मेरी इस गुस्ताख़ी से आपका साबिका पड़ेगा । इस विज़न से एक बहुत गहरी तात्त्विक बात हाथ आती है । सर्वज्ञ अर्हन्त तीर्थंकर तो अपनी मूल स्थिति से ही त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती होते हैं । सो उनका मौलिक धर्मचक्र प्रवर्तन तो उनकी देश-कालातीत आत्मा में ही निसर्गतः आपोआप घटित होता है, होता ही रहता है। बाहर के देशकाल में उसकी एक नैमित्तिक मूर्त अभिव्यक्ति मात्र होती है । पर वह तीर्थंकर तो एक साथ, एकाग्र, अपनी अन्तश्चेतना के ध्रुव पर आसीन रह कर ही सर्वकाल और सर्वदेश की असंख्य आत्माओं में एकबारगी ही यात्रा करता है; एक अविभाज्य तात्त्विक कालधारा में ही अनायास वह सर्व का आश्लेष निरन्तर करता रहता है । मैं इसे 'आन्तर अवकाश' (इनर स्पेस) में धर्मचक्र प्रवर्त्तन कहना चाहूँगा, ठीक आज की भाषा में। लेकिन चूँकि तीर्थंकर का तीर्थंकरत्व प्रकट पृथ्वी पर तभी सम्पन्न और सार्थक माना जा सकता है, जब वह अपने समय के सम्पूर्ण भूमण्डल (ग्लोब) के बाहरी अवकाश (आउटर स्पेस) में भी, ठीक भौगोलिक सार्वभौमिकता में घटित हो सके | उसके बिना तमाम समकालीन पृथ्वी की प्यास को कोई मूर्त और प्रत्यक्ष उत्तर कैसे मिल सकता है ? इसी संचेतना में से मुझे स्पष्ट साक्षात्कार हुआ, कि समकालीन भूगोल के छोरों तक महावीर की समवसरण - यात्रा घटित होना तीर्थंकर की एक अनिवार्य नियति है । परिपूर्ण प्रेम की इस पार्थिव दिग्विजय के बिना, मानो महावीर का तीर्थंकरत्व धरती पर प्रमाणित नहीं हो सकता । और इसी प्रत्यय से प्रेरित होकर पंचम खण्ड में प्रभु को समकालीन पृथ्वी के छोर छूना ही होगा । और वहाँ से लौटने पर मगध- वैशाली के युद्ध का सूत्र संचार अनायास मानो अकर्त्ता महावीर द्वारा होना है। युद्ध मानो प्रलय का प्रतीक है । जीर्ण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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