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भंजक और नवसर्जक एक साथ हुए हैं। सो महावीर भी तो वही हो सकते थे। यह महासत्ता के गतिमत्तत्व (डायनमिज्म) का एक नैसर्गिक विधान और तर्क-विन्यास है। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है, कि रचना में आविर्भुत पुरुषोत्तम की क्रान्तिकारी गतिमत्ता को उसके मुल सत्ता-स्रोत से संगत करके, उसकी उस नैसर्गिक उन्मुक्त स्थिति को, कट्टर सम्प्रदायवादियों के सम्मुख, स्पष्ट किया जाये। वर्ना साम्प्रदायिक जड़त्व की चट्टाने अनर्थक अवरोध की सृष्टि भी कर सकती हैं। इसी कारण उसे समय से पूर्व ही तोड़ देने के लिए महावीर के विद्रोही, प्रतिवादी, गुस्ताख़ और विध्वंसक रूप की आधारिक न्यायता और औचित्य को प्रमाणित करना ज़रूरी था--ठीक शास्त्र, तत्त्वज्ञान और महावीर की मूलगत धर्म-देशना के आधार पर ही। और उनके नवसर्जक और युग-विधाता रूप को भी इसी आधार पर सुदृढ़ता के साथ संस्थापित करना था। साथ ही साहित्य के स्थापित मान-दण्डों के टूटने से उत्पन्न होने वाली समीक्षकीय बौखलाहट को भी जवाब देना अनिवार्य था। ताकि इस कृतित्व के अतिक्रान्तिकारी और रूपान्तरकारी स्वरूप को सही ज़मीन पर समझा-परखा जा सके । चमत्कार यह हुआ है, कि सहज भावक और पूर्वग्रहमुक्त हज़ारों पाठक तो 'अनुत्तर योगी' को बेहिचक पीते गये और आस्वादित करते चले गये। लेकिन साहित्य के कई बहुपठित, प्रशिष्ठ और 'सॉफ़िस्टीकेटेड' समीक्षक विसर्क-विकल्पों में ही उलझ कर, कृति में डूबने से वंचित रह गये। - ये सारी स्थितियाँ मेरे मन में पूर्व प्रत्याशित थीं, और इसी कारण प्रथम खण्ड से ही पश्चात्-भूमिकाएँ लिखना मेरे लिए अनिवार्य हुआ, ताकि कृति के सही अवबोधन का धरातल निर्मित हो सके। इतिहास का विज़नरी और कल्प-दर्शनात्मक अवगाहन और अवबोधन भी, रचना के स्तर पर कई ऐतिहासिक तथ्यों का एक रासायनिक रूपान्तरण करता है। उपलब्ध दार्शनिक वाङमय की शाब्दिक अर्थपरक सीमाएँ भी रचना में टूटती हैं। अतः धर्मदर्शन. योग-अध्यात्म और इतिहास के रूढिबद्ध पण्डितों की सम्भाव्य तलबी के जवाब को भी पहले से ही प्रस्तुत हो जाना ज़रूरी था। इसी कारण ये लम्बी पश्चात्-भूमिकाएँ हर खण्ड के साथ अनिवार्य हुई। और जाने-अनजाने इन भूमिकाओं में पुराण, इतिहास-पुरातत्त्व, धर्म-दर्शन, योग-अध्यात्म तथा साहित्य-दर्शन और कला-शिल्प के कई कुंवारे अछते प्रदेशों में रिसर्च-अन्वेषण भी हुआ है।
चतुर्थ खण्ड में भी ऐसे ही कई उपद्रव और विप्लव सर्जना में घटित हुए हैं। अतः यह तो अर्जेण्ट था ही कि प्रस्तुत 'परिप्रेक्षिका' लिखी जाये,
और उसके बिना ग्रन्थ बाहर न आये। लेकिन सारे ही धर्म-ग्रंथ इस बात के साक्षी हैं, कि जब भी कोई कल्याण-यज्ञ होता है, तो उसमें विरोधी आसुरी
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