________________
प्रभु का तपस्या काल आलेखित है, जिसका समापन उनके कैवल्य-लाभ में होता है। तपस्या काल में मेरे प्रभु को मानुषोत्तर दैविक, दैहिक, भौतिक बाधाओं और कष्टों से गुजरना पड़ा। या कहें कि उन्होंने स्वयम् ही यातना के इन अभेद्य अन्धकारों में उतर कर, उनमें चलना, उन्हें झेलना स्वीकार किया। हर दुःख को चरम तक जाने बिना, उसका निराकरण कैसे हो ? प्राणि मात्र को दुःख से तारने की नियति ले कर ही जन्मा था तीर्थंकर महावीर । वह चाहता या न चाहता, इस नियति को तो अपने परान्त तक पहुंचना ही था। और महासत्ता के उस विधान के अन्तर्गत महावीर को लोक और लोकान्तर में सम्भाव्य हर कष्ट के मूल तक में उतर कर उसे भोगना ही था : ताकि उससे मुक्त होने का उपाय लोक के तमाम प्राणियों की चेतना में उद्बोधित किया जा सके। ... प्रथम खण्ड १९७४ में निकला : और द्वितीय खण्ड १९७५ में। लेकिन फिर तृतीय खण्ड १९७८ में ही निकल सका। द्वितीय खण्ड के समापन में महावीर तो सारे दैविक, दैहिक, भौतिक त्रितापों को चरम तक भोग कर, चुका कर, सर्वज्ञ अर्हन्त भगवान् हो गये। लेकिन अब शायद रचनाकार की बारी थी, कि उन उपसर्गों को रच कर, उनके प्रत्याघातों को स्वयम् अपने जीवन में भोगने को बाध्य हो जाये । मनोविज्ञानतः भी यह समझा जा सकता है। उपसर्ग-पर्व की रचना के दौरान भी मेरे कष्टभोग सतत् जारी थे। लेकिन उसका सर्जन कर चुकने पर ही उन कष्टभोगों के परिपाक को चरम परिणति पर पहुंचना था--शायद । तृतीय खण्ड में तो महावीर पारमेश्वरीय ऐश्वर्य से परिवरित हो कर पृथ्वी पर त्रिलोक और त्रिकाल के चक्रवर्ती के रूप में चल रहे थे। उस सुख और वैभव की कोई उपमा नहीं हो सकती। लेकिन प्रभु के इस भागवदीय ऐश्वर्य की रचना करते समय, रचनाकार उसके समानान्तर ही, विगत उपसर्ग-पर्व के प्रत्याघातों को भी झेल रहा था। विपुल दुःखों के कर्दम में चलते हुए ही, त्रैलोक्येश्वर महावीर के अन्तरिक्षचारी चरणों में रचनाकार को सुवर्ण के कमल खिलाने थे। सो इस दुहरे-तिहरे संघर्ष के चलते तृतीय खण्ड के बाहर आने में तीन वर्ष लग गये। . और तृतीय खण्ड निकलने के समानान्तर ही सन् ७८ के अन्त में ही, मैं टोटल नर्वस-ब्रेकडाउन के ख़तरे में पड़ गया। एक ओर रचनान्तर्गत संघर्षों और उपसर्गों का दबाव-तनाव था, दूसरी ओर अस्तित्व को उच्चाटित कर देने वाली परिवेशगत बाधाओं का अटूट सिलसिला मेरी नसों को तोड़े दे रहा था। अपने उसी छिन्न-भिन्न नाड़ी-चक्र को अपने पदांगुष्ठ तले दाब कर, आख़िर मैंने जैसे नागों के फणामण्डल पर सिद्धासन जमाया, और श्रीसुन्दरी आम्रपाली की चेतना के सूक्ष्मतम और कोमलतम सौन्दर्य-लोकों में स्वप्न-विहार करने लगा। वह एक विचित्र अनुभव था। सृजन-स्वप्नों के उन ललित-कोमल
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org