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हैं, कि वे केवल मुझे निहारें, केवल मेरा प्रताप देखें।' ..और इसी आह्लाद में आलोड़ करते, करवटें बदलते, राजा ने अपलक ही सारी रात बिता दी।
ब्राह्म मुहूर्त में ही उठ कर, राजा और उसकी सारी रानियाँ स्नान-प्रसाधन में व्यस्त हो गये। रानियों को आज्ञा हुई कि : 'ऐसा शृंगार करो, कि कामांगना रति भी लज्जित हो जाये। अप्सराएँ तुम्हारी पगतलियों की महावर हो जायें। स्वयम् त्रिलोकीनाथ तुम्हारे रूप और श्रृंगार को निहारते रह जायें ! ...''
उधर सबेरा होते ही नगर से समवसरण तक का सारा राजमार्ग, उत्सव के वाजिंत्रों और हर्ष-ध्वनियों से गूंजने लगा। राजपथ की रज पर कुंकुम के जल छिड़के गये हैं। राह की भूमि पर सर्वत्र फलों के ग़ालीचे बिछ गये हैं। फूलों के दरिये में जैसे पृथ्वी डूब गयी है। पद-पद पर, सुवर्ण के स्तम्भों और द्वारों पर बहुरंगी मणियों की बन्दनवारें झूल रही हैं। जगह-जगह सोनेचाँदी के घटों और पात्रों को परोपरि चुन कर, उनकी श्रेणियाँ और मण्डल रच दिये गये हैं। उन्हें विपुल सुगन्धित फूलों और श्रीफलों से सजा दिया गया है। चारों ओर टॅगे हैं चित्रित चिनाई अंशुक के पर्दे, चन्दोवे । रत्नों के दर्पण, मणि-मुक्ता के पंखे, पन्ने और नीलम की झारियाँ । सारी राह के अन्तरिक्ष में केशर-जल की नीहार अविरल बरस रही है। नाना पुष्पों के गन्ध-जल जहाँ-तहाँ रत्न-झारियों से छिड़के जा रहे हैं। जगह-जगह द्वारों के शीर्षझरोखों पर नौबत-मृदंग बज रहे हैं। अनेक जगह रचित रंग-मंचों पर गन्धर्व-किन्नर युगलों की तरह, वादक, गायक, नट-नटियाँ तुमुल संगीत-समारोह के साथ नाचगान और नाट्य कर रहे हैं। देव-बालाओं-सी सुन्दरियाँ फूल बरसा रही हैं।
और इसी शोभा की अलका के बीच से गुजरते हुए, महाराज दशार्णभद्र अपने दिग्गज समान श्वेत गजेन्द्र पर आरूढ़ हो कर, प्रभु की वन्दना को जा रहे हैं। उनके रत्नाभरणों की कान्ति से दिशाएँ दमक उठी हैं। उनकी रथारूढ़ रानियों के सौन्दर्य और शृंगार को देख, सारा जनपद जयजयकार कर उठा है। महावीर की जयकार नहीं, महाराज और उनके अन्तःपुर की, उनके वैभव की। "माथे पर हीरक-छत्र, विजन और चँवर डुलाती वारांगनाओं के बीच बैठे महाराजा और महारानी। राजा ने फिर अपनी पृथ्वी और समृद्धि का सिंहावलोकन किया। पीछे हजारों सामन्तों की सवारी। आगे चलते विपुल सैन्य के चमकते शस्त्रास्त्र। सहस्रों अश्वारोहियों की उड़ती पताकाएँ। और सबसे आगे सैनिक वाजिंत्रों का तुमुल घोष। रण का मारू राग : उसी में मिला आनन्द और गौरव का हर्षराग। और राजा के गजेन्द्र को घेर कर, उनकी स्तुति का गान करते चल रहे बन्दीजनों का विपुल कोलाहल और जय-जयकार । राजा को लगा, कि वह चौदहों भुवन का स्वामी है, और वह जगत्पति भगवान् की वन्दना को जा रहा है। इससे बड़ी घटना इस घड़ी पृथ्वी पर क्या हो सकती है ! ...
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