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मार्दव और परिमल में बालक का लालन-पालन होने लगा। जब वह आठ वर्ष का हुआ तो गुरुकुल में विद्यार्जन को भेजा गया। जो भी सिखाया जाता, शालिभद्र को जैसे पहले ही मालूम था । वह शास्त्रों से भी आगे की बातें बोलता। गुरु ने कहा : 'इसे सिखाने योग्य विद्या मेरे पास नहीं है...!' शालिकुमार घर लौट आया। वह जगत् प्रवाह को देखता रहता। वह सोये में भी जागता हुआ, सृष्टि के हर पदार्थ को, हर पर्याय को, एक बहुरंगी मणि की तरह निहारता रहता। हर वस्तु के भीतर एक हीरा है, जिसमें कभी लाल किरण फूटती है, कभी नीली, कभी पीली, कभी हरियाली ।
एकदा उषःकाल में शालिभद्र अकेला ही वन-विहार करके घर लौट रहा था। तो उसने राह में देखा, घरों के द्वार-पल्लों की ओट से, गवाक्षों से, जाने कितनी ही चितवनें उसे एकटक निहार रही हैं !
कालान्तर में युवा होकर शालिकुमार, युवति-जन का वल्लभ हो गया। राह चलते जाने कितनी सुन्दरियों के मन मोहता हुआ, वह नवीन प्रद्युम्न की तरह लोक में विचरता रहता है। उपद्रवी है यह लड़का, सब जमे-जमाये को यह तोड़-फोड़ देता है। इसके चलने से स्थापित नीति-मर्यादायें ख़तरे में पड़ जाती हैं। सो नगर के सरपंच श्रेष्ठियों ने गोभद्र को बुला कर उसके साथ गम्भीर परामर्श किया। और शुभ लग्न में बत्तीस श्रेष्ठि-कन्याएँ शालिकुमार को ब्याह दी गईं। लड़के को मन ही मन हँसी आती रही। केवल बत्तीस ? इतने से क्या होगा! गिनती की बत्तीस ? मर्यादा की इस बेड़ी में अनन्त रमण-सुख कैसे सम्भव है? वह निराकुल कैसे हो सकता है ? और वे उतनी सारी आँखें क्या प्यासी ही रह जायेंगी ?
.....लेकिन ये बत्तीस कुमारिकाएँ, जायें तो कहाँ जायें ? इन्हें सुख न दे सकूँ, तो वह मेरी ही सीमा होगी। मैं इतना छोटा कैसे पड़ सकता हूँ?... और शालिभद्र उन अंगनाओं के साथ आचूड़ विलास में डूब गया। दिन-रात का भेद लुप्त हो गया। रत्न-दीपों की सान्द्र प्रभा में, पराग के पेलव शयनों पर स्पर्श-सुख का मार्दव और दबाव अगाध होता गया। एक ऐसी प्रगाढ़ता, जिसमें चेतन अचेतन हो जाता, अचेतन चेतन हो जाता। अपने भीतरी आकाश के पलँग पर, शालिकुमार जैसे सागर-मेखला में तरंगों पर उत्संगित हो रहा था। जैसे शून्य के फलक पर हर समय नयी चित्रसारी हो रही थी। पर्याय के प्रवाहों पर वह उन्मुक्त तैरता जा रहा था।
इस बीच गोभद्र श्रेष्ठी चरम तक पार्थिव सुख भोग कर विरागी हो गये। उन्होंने जिनेन्द्र महावीर के चरणों में भागवती दीक्षा ग्रहण कर ली। भूखप्यास से ऊपर उठ कर, हवा और जल तक से अनिर्भर हो कर, उन्होंने प्रायोपगमन संन्यास द्वारा देह त्याग कर दिया, और देवलोक में चले गये। वहाँ से
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