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तृप्त हो, संगमक पर अनुगृह की एक चितवन डाल, मुस्करा दिये । और चुपचाप अपनी राह चले गये। संगमक उनके दूर जाते पग संचार को देखता रह गया, सुनता रह गया। उसका जी चाहा, कि उन्हीं के साथ चला जाये ।
"तभी उसकी माँ वहाँ आ पहुंची। देखा, थाली खाली पड़ी है, और संगमक दूर-दूर तक की राह ताक रहा है। धन्या अपने पुत्र के इस मौन
और धुनी स्वभाव को जानती थी। वह तो कभी कुछ माँगता नहीं। आज जाने क्या घटा, कि संगमक ने खीर माँग ली। खाली थाली देख माँ ने सोचा : मेरा लाल सारी खीर बहुत स्वाद से खा गया न। सो खुश हो कर उसने दूसरी बार थाली भर पायसान्न परस दिया।
"संगमक को अब अन्न में रुचि नहीं रह गयी थी। उसकी क्षुधा मानो सदा को शान्त हो गयी थी। लेकिन माँ को वह यह सब कैसे बताये। वह विस्मित है, उच्चकित है, बूझ रहा है : यह क्या हो गया है मुझे? वह कुछ बोल न सका। उसने मां का मन रखने के लिये विमन, विरत भाव से ही आकण्ठ उस खीर का आहार कर लिया। विचित्र हुआ, कि उसी रात संगमक को विशूचिका हो गयी। और सबेरे द्वार पर आये श्रीगुरु का स्मरण करते हुए ही, उसने देह त्याग दी। उस दिन का उसका आत्मदान, आत्मोत्थान का शिखर हो उठा।
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. . उस रात संगमक का जीव शालिग्राम से च्यवन करके जो निकला, तो राजगृही के गोभद्र श्रेष्ठी की भद्रा नामा अंगना के गर्भ में यह कैसा विदग्ध कम्पन हुआ ! "उस रात का संसर्ग सुख परा सीमा को पार कर गया। रात्रि के पिछले प्रहर में भद्रा ने स्वप्न में शालि क्षेत्र देखा। लहलहाती हरियाली का प्रसार । प्रातः भद्रा ने अपने भाविक और दैवज्ञ पति से इस स्वप्न का फल पूछा। श्रेष्ठी ने कहा : 'तुझे अक्षत सुख के भोगी पुत्र का लाभ होगा, प्रिये !' यथाकाल भद्रा को ऐसा दोहद हुआ, कि वह सात दिनों तक राजगृही की राहों पर रत्न लुटाती हुई निकले । “और तभी ऐसा हुआ कि गोभद्र की निधि में से रत्नों का मानो स्रोत उमड़ता आया । और भद्रा की उस रत्न उछालती मातमूर्ति को देख लोगों को लगा, कि क्या पृथा देवी स्वयम् ही प्रकट हो आयी है राजगृही के राजमार्गों पर ?
"नव मास ग्यारह दिन बीतने पर, भद्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया । मानो कि विदुरगिरि की भूमि ने वैदूर्य मणि को प्रसव किया हो। उसके उद्योत से दिशाओं के मुख उजल उठे। स्वप्न के शालि-क्षेत्रों में से आये पुत्र को नाम दिया गया शालिभद्र। उस मुहूर्त में पाँच धात्रियों ने अपने मुक्ताहार पृथ्वी पर बिछाते हुए प्रभु का बारम्बार वन्दन किया। पद्म-दलों के
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