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.."अगले ही दिन सबेरे अनायास, आर्द्रक मुनि श्री भगवान् के चरण-प्रान्तर में, द्राक्षा-लता की तरह भूसात् दिखायी पड़े ।
'आत्मन् आर्द्रक, महावीर तुम्हारी मैत्री का चिरकाल से प्यासा और प्रत्याशी है !'
'मेरे खोये-बिछुड़े आत्म ने ही मुझे स्वयम् पुकार कर अपना लिया। मैं पूर्णकाम हुआ, भगवन् !'
'स्वयम्भुव आदीश्वर का तेजांशी पुत्र आर्द्रक, जन्म से ही अर्हत् का आप्त और निखिल का मित्र रहा है।'
'अनार्यजन्मा आईक ?' 'आत्मा तो स्वभाव से ही आर्य है, मेरे सखा। उसके राज्य में भूगोल और इतिहास के विभाजन नहीं। वह सार्वभौमिक है, और सर्वत्र है। अफाट तपते रेगिस्तान में कब समुद्र लहराने लगता है, सो कौन जान सकता है !'
'मेरे लिये क्या आदेश है, भगवन् ?'
'तथाकथित अनार्य देशों में जाओ आत्मन्, जहाँ मनुष्य अपना ही मित्र नहीं, अपना ही सगा नहीं। जहाँ वह अपने ही से चिरकाल से बिछुड़ गया है। अन्धकार के उस राज्य में विचरो, प्रिय । वहाँ की हर आत्मा को उसका अपना ही मित्र और प्रियतम बना दो। विश्वामित्र आर्द्रककुमार जयवन्त हों !' स्वर्गों के फूल बरसाते कल्प-वृक्षों में से जयकारें गुंजायमान हुईं :
त्रिलोक-मित्र भगवान् महावीर जयवन्त हों ! मित्रों के मित्र आईक कुमार जयवन्त हों !
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