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'जिन श्रीगुरु की हमें चिर दिन से प्रतीक्षा थी, वे आ गये ! हे तरणतारण गुरु भगवन्त, हमें जिन-दीक्षा दे कर अपना ही अनुगामी बना लें।' ।
'तीन लोक, तीन काल के गुरु भगवान् महावीर स्वयम्, इस समय तुम्हारी इस भूमि में विहार कर रहे हैं। उन्हीं के पास जाओ, तापसो! तारणहार केवल वही हैं, मैं कोई नहीं । मैं हूँ केवल उनका एक दृष्टान्त, एक पूर्वाभास मात्र !' ___ कह कर तत्काल आर्द्रक महर्षि अपने संघ सहित, सन्मुख पूर्वाचल की ओर विहार कर गये।
"राजगृही में हलचल मच गयी। एक ही उदन्त चारों ओर सुनायी पड़ रहा था। कोई आर्द्रक महर्षि राजगृही के परिसर में विहार कर रहे हैं। पाँच-सौ चोर उनके निकट आत्म-समर्पण कर, निग्रंथ श्रमण हो गये । उनके एक दृष्टिपात मात्र से, वज्र साँकलों में जकड़े एक दुर्मत्त गजेन्द्र के पैरों में बँधी साँकलें तड़ाक् से टूट गयीं। उस हाथी के मांस के लोलुप पाँच-सी हस्तितापस, आर्द्रक ऋषि के शरणागत हो गये। ऋषि ने उन्हें प्रतिबोध दे कर श्रीभगवान् के समवसरण में भेज दिया। अनार्य देशवासी आर्द्रक मुनीश्वर जयवन्त हों ! और हजारों मागध उस अनार्य श्रमण के दर्शन को निकल पड़े। __ "अभय राजकुमार विस्मय में पड़ गया। क्या सच ही मेरा चिरकाल का स्वप्न-मित्र आ गया ? श्रेणिकराज भी आपोआप समझ गये, कौन आया है। दोनों पिता-पुत्र रथ पर चढ़ कर उनके वन्दन को गये। वन्दन प्रदक्षिणा के उपरान्त, आर्द्रक मुनि के समक्ष हो कर बोला अभय राजकुमार : _ 'अपने मित्र अभयकुमार को भूल गये, महर्षि आर्द्रक ? उसी से मिलने तो घर छोड़ कर निकल पड़े थे एक दिन । लेकिन उसी से मुंह मोड़ गये?' . 'ठीक मुहर्त आने पर ही तो, आत्मा के मित्र से मिलन हो सकता है, अभय राजा! मेरे आदिकाल के स्वप्न, तुम तक पहुँचने के लिये भीतरबाहर के जाने कितने अगम-दुर्गम चक्रपथों की यात्रा करनी पड़ी। लगता था, उन अगम्यों में पग-पग पर तुम्हीं तो मेरे साथ चल रहे हो। सो मित्र को बाहर कहीं खोजने की बात ही भूल गई !'
'प्राणि मात्र के मित्र, त्रिलोकी के अनन्य आत्मीय अर्हन्त महावीर तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं, हे संयतिन् !'
'वही तो मुझ पथहारा को, अपने चिर कांक्षित मित्र के पास ले आये, अभय राजा। तपस् के अग्नि-मण्डलों को पार किये बिना, मन का मनई कैसे मिल सकता है ?'
अभय ने देखा, सामने कोई पुरुष नहीं, केवल परा प्रीति का एक प्रभा-पंज जाज्वल्यमान है। उसकी अन्तर-विभा से चराचर सृष्टि संवेदित और रोमांचित है।
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