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________________ २३३ 'यह धनुष्यधारी पुरुष वही द्विज-पुत्र है, हे भव्य जनो! अभी लज्जावश इसने अपना संशय मन ही मन पूछा। फिर शास्ता का आदेश होने पर, यह वचन में बोला तो सही, पर स्पष्ट न पूछ सका। इसने संकेत वाणी में ही पूछा : 'यासा सासा?'-क्या वह स्त्री मेरी बहन है ?' शास्ता ने भी संकेत वाचक में ही उत्तर दिया : ‘एवमेव ! -हाँ, यह वही है।' ___और गन्धकुटी की सीढ़ियाँ निस्पन्द हो गयीं। दिव्य ध्वनि परावाक् में विलीन हो गई। . सर्वज्ञ के उस वचन से द्विज-पुत्र के अवचेतन की सारी अँधियारी तहों का छेदन हो गया। उसकी चेतना पर से पर्त-दर-पर्त जाने कितने ही मोहकोश छिलकों-से उतरते चले गये। अपनी आत्मा के आदि उद्गम से, इस क्षण तक के उसके सारे भवान्तर, जन्मान्तर, पर्याय, कर्म-बन्ध, मन के जाने कितने ही भावानुभाव, राग-द्वेष, एक साँकल की तरह उसे टूटते अनुभव हुए। एक क्षण मात्र में ही वह काल के असंख्य अन्ध सागरों में से यात्रा-परिक्रमा करता, सर्वज्ञ के चरण-तट पर आ खडा हआ। फिर लौट कर काल की तिमिर-रात्रि के सारे पट चीरते हुए उसने पार तक देखा। कितने जन्म, कितने जीवन, कितनी पर्याय, कितने नाते-रिश्ते-इन सब में उसका अपना कोई चेहरा कहाँ है ? कहाँ है इसमें उसकी अपनी कोई इयत्ता? कोई अपनी अमिट आत्मवत्ता ? सारी पर्यायों में कितने सारे मैं ? मैं "मैं मैं । कहीं तो नहीं दीख रहा इस पर्याय-परम्परा में, उस 'मैं' का अपना कोई एकमेव चेहरा। इनमें वह आप तो कहीं कोई नहीं। वे सारे मोह-माया के नातेरिश्ते? सब कहाँ खो गये? लहरों की तरह, वे जहाँ से उठे, उसी जल में विलीन हो गये। वह किसे कहे अपना, किसे कहे पराया? सारे सन्दर्भ, परिप्रेक्ष्य विलुप्त हो गये। ''जहाँ उसी भव में बालपन में ही, भाई के मन में बहन के प्रति, गुह्य काम जागा। जहाँ इसी भव में भाई बहन के साथ सो गया, वहाँ किसी भी सत्य सम्बन्ध का आधार क्या हो सकता है ? वहाँ कौन अन्ततः किसी का है ? मैं और मेरा के इस माया-राज्य में, कोई भी तो अन्ततः मेरा नहीं। हर सम्बन्ध, हर नाता निराधार है। एक वीतमान पर्याय मात्र । भाई-बहन हो कि पति-पत्नी हो, समागम में क्या अन्तर पड़ता है ! मांस के इस दरिये में किसी भी लहर पर कोई नाम-नाता अंकित नहीं। सब केवल देखत-भूली का खेल। "द्विज-पुत्र क्या करे, कहाँ लौटे ? क्या कहीं कोई उसका उद्गम नहीं, घर नहीं, स्वदेश नहीं, स्वभूमि नहीं, जहाँ से वह आया है, और जहाँ वह लौट सके ? उसकी वेदना चरम पर पहुंच गई। वह विद्ध हो गया। उसने प्रभु के चरण पकड़ लिये। हठात् सुनाई पड़ा : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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