________________
१७० ..
देवी हालाहला के आदेशानुसार, उनके सारे वैभव और तामझाम के साथ, वाम तीर्थंकर मक्खलि गोशाल की शोभा यात्रा सारी श्रावस्ती में से निकाली गयी। अन्धी भीड़ों के उमड़ते पारावार ने, मनमानी जय-जयकारों से आकाश फाड़ दिया। हालाहला के ख़ज़ाने बहा दिये गये। सुवर्ण, रत्न, माणिक-मुक्ता, नाना अलंकार, फल-पल्लव, अबीर-गुलाल आर्य गोशालक की शिविका पर अविराम बरसाये गये। हजारों दीन-दरिद्र, कंगाल निहाल हो गये।
चरम तीर्थकर त्रिलोकपति भगवान महावीर पर अग्नि-शलाका फेंकने वाले, प्रभु-हत्यारे का ऐसा सम्मान ? लोग परस्पर प्रश्न पूछते रह गये। उत्तर भी स्वयम् से ही पाया : वह अग्निलेश्या भी तो महावीर ने ही उसे दी थी : और यह सम्मान भी महावीर के सिवाय उसे कौन दे सकता है ?
०
श्री भगवान् श्रावस्ती से विहार कर, मेंढक ग्राम के कोष्टक चैत्य में समवसरित थे । प्रातः की धर्म-पर्पदा में आर्य गौतम ने प्रभु को संबोधन किया : ___'मक्खलि गोशालक काल कर गया, भगवन ! उसकी भव्य अन्त्येष्टि यात्रा के आगे चलते हुए उसके दिशाचर श्रमण आघोषणा कर रहे थे, किमहावीर के अग्नि-पुत्र गोशालक देवलोक-गमन कर रहे हैं। समझा नहीं प्रभु, महावीर का अग्नि-पुत्र कैसा? और गोशालक जैसा उन्मार्गी, दुरात्मा, गुरुद्रोही, प्रभु-घाती देव-लोक गमन कर गया? यह कैसे सम्भव है, प्रभु ?' :
_ 'आर्य गोशालक अच्युत स्वर्ग की उपपाद शैया में जन्म ले चुके, गौतम ! अन्तिम क्षण में महावीर उसकी महावेदना में से स्वतः प्रकट हो आये। उसने अपने आप्त प्रभु को पहचाना। वह अनुताप से भर आया। उसने पश्चात्ताप
और प्रतिक्रमण किया। प्रायश्चित्त की पावक में नहा कर वह निर्मल और वीत-द्वेष हो गया। वह समर्पित हो गया। उसे अन्तर-मुहूर्त मात्र में सम्यक्त्व लाभ हो गया ! और वह ऊर्ध्वारोहण कर अच्युत कल्प में बाईस सागरोपम आयु वाला देव हो गया। आर्य गोशालक जयवन्त हों !' ___ 'प्रभुघाती गोशालक, प्रभु का ऐसा प्ररम प्रिय-पात्र हो गया ? विपल मात्र में ही सम्यक्त्व-लाभ कर उत्कृष्ट देवगति पा गया ?' ____'चैतन्य की मक्ति-यात्रा, सपाट रेखिल नहीं, कुंचित और चक्रिल होती है, गौतम ! क्षण के इस ओर जीव नरक के किनारे हो सकता है, क्षण के उस ओर वह देव तो क्या, अर्हत् केवली तक हो सकता है। चैतन्य का परिणमन कालातीत और केवली-गम्य होता है। बाह्याचार उसका निर्णायक नहीं। घणा भी प्रेम की ही एक विभाव पर्याय है, गौतम ! चरम पर पहुंच कर, प्रेम हो जाना ही उसकी अन्तिम नियति है।'
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org