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."और ठीक तभी मध्याह्न का घंटा राज-द्वार में बज उठा। और गान्धारी रोहिणी अचानक आविष्ट-सी हो कर फूट पड़ी :
'ओह तुम : 'तुमने मुझे धोखा दे दिया, भगवान् ? तुमने मेरी सारी अगवानियों को ठुकरा दिया? निष्ठुर "तुम तुम आ गये मेरे नाथ ! लेकिन
सिंह सेनापति फटी आँखों से ताकते रह गये। अबूझ है यह लीला !
"और ठीक तभी, अपनी मूर्छाओं में भी निरन्तर बेचैन आम्रपाली ने, अपने प्रासाद के अत्यन्त निजी कक्ष की शैया में करवट बदली। मूर्छित आम्रपाली ने अनुभव किया कि उसके वक्षोज-मण्डल पर कमलों की चरण-चाप धरता यह कौन चला आ रहा है ? उसने चौंक कर आँखें खोली : 'ओह, तुम आ गये ! सिंह द्वार से नहीं आये? मेरे द्वार से मेरी राह आना तुमने पसन्द किया ? अभी-अभी तुम इस सप्तभूमिक प्रासाद के आगे से निकलोगे। कैसे करूँ तुम्हारी अगवानी? क्या है इस वारवनिता के पास, तुम्हें देने को? एक कलंकित रूप, सुवर्ण के नीलाम पर चढ़ी भोगदासी !' .और आम्रपाली रो आई। उसका जी चाहा कि ठण्डी रत्न-शिलाओं पर सर पछाड़ दे। क्या करे वह ? नहीं, आज क्षोभ नहीं। मेरा भवन तुम्हारी अगवानी करेगा। लेकिन मैं ? पता नहीं ... ___ और अगले ही क्षण देवी आम्रपाली की आज्ञा सप्तभूमिक प्रासाद के खण्ड-खण्ड में सक्रिय हो गयी। विपल मात्र में सारे महल में सुन्दरियों और परिचारिकाओं के आवागमन, और मंगल आयोजन का उत्सव मच गया। राशिकृत पुष्पमालाओं और बन्दनवारों से सारा महल रंगीन हो कर महक उठा। वातायनों से प्रवाहित अष्टगंध धूप की सुगन्ध ने सारे वातावरण को पावनता से प्रसादित कर दिया। मुख द्वार के गवाक्षों में शहनाइयों, शंखनादों
और दुंदुभियों की ध्वनियाँ गूंजने लगीं। देवी आम्रपाली के प्रासाद के सारे द्वार, वातायन, गवाक्ष और छज्जों पर फूलों में बिछलती सुन्दरियाँ नृत्य कर उठीं। और प्रासाद के जाने किस अज्ञात गोपन कक्ष में से 'शिवरंजिनी' की धीर प्रीत-रागिनी वीणा में समुद्र-गर्भा हो कर गहराती चली गयी।
सारी वैशाली चकित हो गयी। देवी आम्रपाली के घर आज किसकी पहुनाई है, वैशाख की इस सन्नाटेभरी तपती दोपहरी में ? .. लेकिन हाय, हमारे प्रभु नहीं आये ! वे जाने कहाँ अटके हैं ? जन-जन के हृदय ने पीड़ा की एक टीसती अंगड़ाई भरी। हाय, हमारे भगवान् नहीं आये ! सिंह तोरण पर बजती शहनाई में प्रतीक्षा की रागिनी अन्तहीन रुलाई हो कर गूंज रही है।
o .. और ठीक तभी वैशाली के पश्चिमी द्वार पर एक दस्तक हुई।
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