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' बता कर क्या करती, स्वामी ! जानती थी, तुम साथ नहीं चलोगे । और यह भी जानती थी, कि मेरे वहाँ जाने और लौट कर सम्वाद देने से भी तुम्हें प्रसन्नता न होगी । कितना जी टूटा, कि बताऊँ तुम्हें, क्या देख आई हूँ। लेकिन तुम्हारी तनी भृकुटि से अपनी उस निधि को मलिन नहीं होने देना चाहती थी । सो चुप रही, और वह छबि आँख से पल भर भी ओझल न हो सकी ।'
'परम सत्ताधीश महावीर की वह छबि, जिसने वैशाली के कट्टर शत्रु श्रेणिक बिम्बिसार को शरण दी ! उसे आगामी उत्सर्पिणी का प्रथम तीर्थंकर घोषित किया ! वैशाली को हरा कर स्वयम् हार कर, वैशाली के बेटे ने हमारे प्राणों के हत्यारे को त्रिलोकी के सिंहासन चढ़ा दिया ! उस छबि के आगे तुम अपने धनुष-बाण फेंक आयीं, वीरांगना गान्धारी ? धन्य है तुम्हारा वीरत्व ! '
'मैंने पराजय का नहीं, परम विजय का दृश्य देखा, सेनापति । मैंने महावीर के एक कटाक्षपात तले श्रेणिक बिम्बिसार को धूल में लोटते देखा । मैंने महावीर का वह सूरज-युद्ध देखा, जिसकी साक्षी रहने का आमंत्रण वे मुझे दे गये थे। मैंने देखा, कि अयुद्ध्यमान महावीर ने महायोद्धा श्रेणिक को पलक मात्र में पछाड़ दिया है । मैं इन्हीं आँखों से देख आयी हूँ, आर्यपुत्र, कि श्रेणिक भम्भासार ने अपना वीरत्व, सम्राटत्व, सिंहासन, सम्पदा सब को महावीर के चरणों में हार दिया। वे खाली हो कर महलों में लौटे, और भीतर झाँका तो पाया कि पोर-पोर में महावीर भर उठा है । मैं वापसी में राजगृही के महालय गई थी, और चेलना बुआ से मिलती हुई लौटी थी । बताया उन्होंने कि सम्राट तो प्रभु के प्रेम में पागल हो गये हैं । सारे दिन चेलना बुआ को बाँहों में भर - मेरे भगवान मेरे प्रभु मेरे महावीर - पुकारते रहते हैं । महानायक सिंहभद्र सुनें, श्रेणिक ने सिंहासन- त्याग कर दिया है ! मगध की गद्दी सूनी है । निःसन्देह चम्पा में हमारे दोहितृलाल अजातशत्रु राज कर रहे हैं। लेकिन मगध का साम्राजी सिंहासन खण्डित और सूना पड़ा है ! ' 'श्रेणिक और सिंहासन - त्याग ? क्षमा करें देवी, मेरी समझ काम नहीं करती ।'
'यह समझ की नहीं, बोध की भूमि है, आर्यपुत्र । महाभाव में ही यह अनुभूयमान है । आप आँखों से देख कर भी विश्वास न कर सकेंगे । तो उपाय क्या ? '
'त्रिलोकपति तीर्थंकर महावीर कभी वैशाली नहीं आयेंगे, यह तुम मुझसे जान लो, देवी !
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