SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 405
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७ भाषा ही बोल सकते हैं। सर्वज्ञ की भाषा समकालीन और सर्वकालीन एक साथ होती है। जैसा कि पहले कह चुका हूँ, कुछ विरल अपवादों को छोड़ कर, हमारे अधिकांश समीक्षकों का ऐतिहासिक दृष्टिकोण अत्यन्त तथ्यात्मक और सतही पाया जाता है। धारावाहिक काल-दृष्टि से उनकी मानसिकता और चेतना सर्वथा अछूती और अनजान है। वे ऐसा स्थूल सवाल उठा हो सकते हैं, कि महावीर के काल के साथ 'सर्वहारा', 'सर्वहारी', 'शोषक-शोषित', 'प्रभु-वर्ग' आदि शब्द कैसे संगत हो सकते हैं ? उस सारी सतही इतिहास-दृष्टि की भ्रान्ति को आमूल खत्म कर देने के लिये ही उपयुक्त विवेचन अनिवार्य जान पड़ा। पहले ही स्पष्ट कर चुका हूँ, कि अनेकान्त-दृष्टा महावीर की वाणी में पूर्वापर विरोध तो सम्भव नहीं, लेकिन प्रसंगानुसार विरोधाभासी उक्तियां मिल सकती हैं। मसलन कहीं तो महावीर अकर्ता भाव से बोलते सुनाई पड़ते हैं, और कहीं कर्ता भाव से। कहीं वे कहते हैं, कि 'महावीर पर में हस्तक्षेप नहीं करता, वह कुछ करता नहीं, परिणाम स्वतः प्रकट होता है।' तो कहीं वे सारे इतिहास के दुश्चक्र को उलट देने की बात करते हैं। वे अनेक उद्घोषणाएँ करते सुनाई पड़ते हैं, कि मैं यह करने आया हूँ, मैं वह करने आया हूँ। यह ठीक वैसा ही है, जैसे गीता में श्रीकृष्ण एक ओर तो सारा कर्तृत्व अपने हाथ में ले लेते हैं, और दूसरी ओर 'न कर्तृत्वम् न कर्माणीच... ' कह कर सारे कर्तृत्व से अपने को मुक्त कर लेते हैं। यहाँ वही अनेकान्तवाद और सापेक्षवाद सम्मुख आता है। कृष्ण हों कि महावीर हों, अपेक्षा विशेष से वे कर्ता भी हैं, अपेक्षा विशेष से वे अकर्ता भी हैं। क्यों कि यह अनेकान्तिकता, यह सापेक्षता, वस्तु-स्वभाव है, आत्म-स्वभाव है। अनेकान्तिक सत्ता सपाट रेखावत् नहीं होती, वह चक्राकार और अन्तर्गत होती है। इसी से उसकी अभिव्यक्ति की भाषा भी, सपाट रेखिल न हो कर, चक्रिल होती है, और इसी कारण सतही पाठक को उसमें अन्तविरोध की ग़लतफ़हमी होती है। जहां भी पाठकों को ऐसा कोई अन्तर्विरोध दिखाई पड़े, वहाँ वे उपयुक्त स्पष्टीकरण की रोशनी में समाधान पा सकते हैं। एकाध मित्र ने समग्र कृति के रूप-बन्ध या स्ट्रक्चर का प्रश्न उठाया है। अपेक्षा की गयी है, कि इतनी विराट् कृति को योजनाबद्ध और सुसंगठित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy