________________
૪૬
वस्तु-स्वभावी शाश्वत धर्म की इसी भूमि पर भगवान आनन्द गृहपति की रूढ़ व्रत-त्याग की सूची को व्यर्थ कर देते हैं । वे स्पष्ट कहते हैं, कि जो वस्तु-स्वभाव और आत्म-स्वभाव से संगत नहीं, ऐसा तमाम परम्परागत व्रतनियम-त्याग - आचार मात्र पाखण्ड है, झूठ है, बेबुनियाद है । वह आत्म-प्रवचना है । मात्र बाह्य आचार- पालन से आत्मज्ञान सम्भव नहीं । आत्मभान के उत्तरोतर प्रकटीकरण से ही, अनायास सम्यक् आचार जीवन में प्रकट होता जाता है । आज के मनुष्य की जो मनोवैज्ञानिक आत्म-स्थिति है, उससे भी यही बात संगत सिद्ध हो सकती है। आज का मनुष्य किसी बाहरी त्याग-विराग, व्रत-नियम- आचार को कभी न स्वीकारेगा। क्यों कि उसके पाखण्ड से वह खूब परिचित हो चुका है। वह ध्यान-समाधि द्वारा सीधे आत्मानुभव तक जाना चाहता है । उस आत्मानुभव में से जो आचार सहज उसके जीवन में उतरेगा, वहीं उसके मन सच्ची और स्थायी उपलब्धि हो सकती है । सत्यअहिंसा - अपरिग्रह के 'पालन' से समाधि नहीं मिल सकती, समाधि में से ही ये स्वभावगत धर्म प्रकट हो सकते हैं ।
यह प्रक्रिया महावीर के मूल साक्षात्कृत धर्म से लगा कर, आज के टू-डेट मनोविज्ञान और समाजवाद तक अत्यन्त संगत रूप से उपलब्ध हो जाती है। यह मेरी व्याख्या नहीं है, 'रिडिस्कवरी' है, पुनरुद्घाटन मात्र हैं। स्थूल नैतिकता और व्रत आचार में ही धर्म की इतिश्री देखने वाले जैनों तथा अन्य धर्मियों को भी, धर्म के इस पुनर्साक्षात्कार से गहरा धक्का पहुँचेगा । उनके पैरों तले की ज़मीन हट जायेगी, उनके मिथ्यात्व की जड़ें उखड़ जायेंगी । लेकिन यह अनिवार्य है । और यही महावीर का विप्लवी और अतिक्रान्तिकारी स्वरूप है ।
वर्ग-प्रभुता, वर्ग-विग्रह, शोषण आदि वैषम्य सभ्यता के इतिहास में आरम्भ से ही चले आये हैं। हमारे वैज्ञानिक युग ने इतिहास के इस बद्धमूल कैंसर को पकड़ कर सामने पटक दिया है। महावीर यदि त्रिकालज्ञानी और त्रिकाल - वर्ती हैं, तो स्वभावतः आज के युग में जब उनके व्यक्तित्त्व का पुनसृजन होगा, तो आज के मनुष्य को वे ठीक आज की भाषा में ही सम्बोधन करते सुनाई पड़ेंगे। उनकी वाणी में यदि वर्ग -विग्रह या शोषण जैसे शब्द आते हैं, तो युग सन्दर्भ में, ठीक महावीर के उपलब्ध व्यक्तित्व की संगति में हीं, वे अत्यन्त स्वाभाविक, सही, संगत और अनिवार्य हैं। आज के मनुष्य केपीड़न की पुकार के उत्तर में, महावीर आज की भाषा ही बोल सकते हैं। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य चाहे उनके युग का ही क्यों न हो। क्यों कि जो तब प्रासंगिक था, वही आज भी प्रासंगिक है । और सर्वज्ञ महावीर सर्वकालीन
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org