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________________ उसका उपयोग किया है। उस प्रकार की अस्मिता या वैविध्य, कला में एक नये सृजनात्मक माध्यम को बरतने का रसास्वादन मी कराता है। उसमें यदि साम्प्रदायिक भाषा का विनियोजन भी है, तो किसी सम्प्रदाय या दर्शन की प्रस्थापना या पुष्टि उसका लक्ष्य नहीं। वह नज़रिया एक स्वयम् सम्प्रदाय-ग्रस्त आलोचक का ही हो सकता है, रचनाकार का नहीं। जिस अर्थ में 'रामायण' और 'महाभारत', 'कुमार सम्भवम्' और 'बुद्ध चरित्', दान्ते की 'कमेडिया डिविना' और श्री अरविन्द की 'सावित्री' या मुन्शी का 'कृष्णावतार' या प्रसाद की 'कामायनी' साम्प्रदायिक नहीं कही जा सकती, उसी अर्थ में 'अनुत्तर योगी' को भी साम्प्रदायिक नहीं कहा जा सकता। मुझे तो शक्तिपात (आत्मानुभूति) की दीक्षा भी शैव गुरु से प्राप्त हुई। मेरी तो सारी साधना शेवशारत और वैष्णवी रही। मैंने मरियम के मन्दिर में मां की परात्पर सुन्दर कलाई और हथेली का प्रत्यक्ष रवत-मांस में दर्शन किया। श्रीअरविन्द और श्रीमा मेरी नाड़ियों में व्याप गये। कृष्ण मेरे मनोदेश का एक मात्र महानायक है। वृन्दावन में आज भी मेरे मन रासलीला चल रही है। महाराष्ट्र के सन्त-तीर्थों में मुझे आज भी दत्तात्रेय, पंढरीनाथ, ज्ञानेश्वर, एकनाथ, तुकाराम की जीवन-लीला प्रत्यक्ष अनुभव होती है। ___ मेरे 'अनुतर योगी' महावीर मेरी इसी सार्वभौमिक चेतना में से मूर्तिमान हो कर अवतरित हुए हैं। जो इस मूमा और गहराई से सर्वथा अछूते हैं, जिनमें कोई वृहत्तर प्रज्ञा प्रकाशित नहीं, उन्हें ही 'अनुत्तर योगी' में साम्प्रदायिकता की गन्ध आ सकती है। यह बुद्धि का सीमित और खण्डित राज्य नहीं, यह महाभाव का अपरिसीम भूमा-राज्य है। ___मेरे महावीर दार्शनिक नहीं, आध्यात्मिक हैं, अनन्त-आयामी चैतन्यपुरुष हैं। उनकी कैवल्य-ज्योति में त्रिलोक और त्रिकाल के सारे परिणमन एक साथ झलक रहे हैं। यही कारण है कि किसी जड़-रूढ़ हो गये परम्परागत जैन अध्यात्म या आचार-संहिता से वे बँधे नहीं हैं। उनका अध्यात्म एक विशुद्ध यात्मानुभूति है, नानामुखी सत्ता मात्र का एक अनेकान्तिक, मुस्त दर्शन और ज्ञान है। यही बात सभी धर्मों के मूल उत्सभूत अध्यात्म और परम पुरुषों पर समान रूप से लागू होती है। अध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है, 'अघि' अर्थात् जानना, 'आत्म' को। अपने आत्म के स्वरूप को सम्यक् और अन्तिम रूप से जान लेना ही अध्यात्म है। जब अपने 'आत्म' यानी 'मैं' का हमें सम्यक् ज्ञान हो जाता है, तो लोक की अन्य सत्ताओं और उनके साथ के हमारे सम्बन्ध का भी सम्यक् ज्ञान हो जाता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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