________________
के बखिये उधेड़ देते हैं, और उनके आत्मवंचक फ़रेब और निःसारता को बेनकाब कर देते हैं। इस प्रकरण में महावीर सम्पत्ति के स्वामित्त्व मात्र को सर्वोपरि पाप और हिंसा सिद्ध कर के, उसकी जड़ों को उखाड़ फेंकते हैं। फलतः आनन्द श्रेष्ठि की चेतना में मौलिक रूपान्तर घटित होता है, वह अपने विश्वव्यापी व्यवसाय और सम्पत्ति का एक संचालक-नियामक मात्र रह कर, उसे लोक के भरण-पोषण के लिये अर्पित कर देता है। उस काल की यह घटना, ठीक आज और आगामी कल की सम्भावना को संकेतित और प्रतिबिम्बित करती है। __इस तरह आप यदि धारावाहिक काल के पट पर लिखित इस कृति को उसकी मूलगत संकल्पना के परिप्रेक्ष्य में पढ़ेंगे, तो महावीर की अतिक्रान्ति के चक्रावर्ती, सार्वकालिक विराट् स्वरूप को ठीक से हृदयंगम कर सकेंगे। यों तो वह स्वयम् रचना में ही उजागर है। लेकिन फिर भी सीमित नजरिये के कारण प्रश्न उठते हैं, तो महाकाव्य के अखण्ड और खण्ड काल-तत्त्व के उलझाव की पृष्ठभूमि पर, एक अन्तिम स्पष्टीकरण करने की कोशिश यहाँ की गई है।
जैसा कि पहले भी पिछले खण्डों की भूमिकाओं में स्पष्ट कर चुका हूँ, कि उस काल के समकालीन पात्रों की विभिन्न वयों का लेखा-जोखा करने की व्यर्थ चेष्टा मैंने नहीं की है। घटना-क्रम में उनकी वयों के अन्तर आप ही किंचित् झलक जाते हैं। सारे पात्र एक धारावाहिक काल-प्रवाह में यथासमय आते हैं, और चले भी जाते हैं। उनकी विशिष्ट प्रासंगिकता ही उनकी वयों और स्थितियों की निर्णायक है। चूंकि मैंने सपाट काल-पट पर नहीं लिखा है, शशी से कथा-क्रम में मी सीधा और रैखिक (लीनियर) सिलसिला नहीं है। मेरा धारावाहिक काल चक्राकार (सायविलक) गति से चलता है। तो कथाएँ भी एक चक्राकार प्रवाह में बार-बार पीछे तक जा कर, वर्तमान में घटती हुई, अनागत तक में व्याप्त होती चली जाती हैं। मेरी काल-धारणा और चेतना को ठीक समझ लेने पर, अनेक उठने वाले प्रश्नों के उत्तर आप ही मिल जायेंगे।
इस कृति में मैंने महावीर के नाम पर चल रहे प्रणालिगत धर्म-दर्शन को अवकाश नहीं दिया है। उसका प्रयोग, उसकी पदावलि जहाँ भी आई है, वह प्रतीक मात्र है। केवल एक सुगठित 'फॉर्म' या ढाँचे की तरह मैंने
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org