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________________ ३३ विज्ञानी विकासवादियों ने, तथा श्री अरविन्द जैसे आत्मविज्ञानी विकासवादी ने भी, समान रूप से विकास और प्रगति को एक धीरगामी और अन्तर्गामी प्रक्रिया माना है, जिसके प्रतिफलन में सदियाँ तो क्या, लाखो वर्ष लग जाते हैं। पिछले कई हजार वर्षों में सभी देश-कालों के पारदृष्टा ज्योतिर्धरों ने मानवीय चेतना के विकास, रूपान्तर और जीवन-जगत में अभीष्ट परिवर्तन के जो चैतन्य-बीज डाले थे, वे आज फूटते दिखाई पड़ रहे हैं। इतिहास की तमाम क्रान्तियाँ उन्हीं बीजों का आंशिक, अपूर्ण विस्फोटन भर हैं। अनुभवजन्य विकास की अनेक परिक्रमाओं से गुजर कर ही, क्रान्तियों की यह शृंखला सम्भवतः एक स्थायी अतिक्रान्ति और रूपान्तर के रूप में पृथ्वी के ठीक पार्थिव माध्यमों में प्रतिफलित हो सकती है। महावीर भी इस मौलिक महा-प्रक्रिया के अपवाद नहीं हैं। मैंने जो किया है, वह केवल इतना ही है कि इस गहनगामी प्रक्रिया को सृजन के स्तर पर अनावरित किया है, उसे कला में मूर्त और सम्वेद्य बनाने का एक विनम्र प्रयास किया है। आदिकाल से ज्योतिर्धरों की जो परम्परा चली आयी है, जो सार्वभौमिक प्रज्ञा की अनाहत महाधारा प्रवाहित है, महावीर मी उसी के एक वंशधर और सम्वाहक थे। ___मैं आज अपने युग में बैठ कर स्वभावतः अपने युग की व्यथा-कथा ही जब महावीर को केन्द्र में रख कर लिख रहा हूँ, तो बेशक मेरा युग महावीरयुग में स्वाभाविक और वास्तविक ढंग से प्रतिबिम्बित हो सका है। और जाहिर है कि मैंने महावीर से अपने युग की यातना और समस्या का जवाब तलब किया है। और वह जवाब उनमें से बराबर आ भी रहा है। लेकिन उसे खण्ड और अखण्ड काल के पारस्परिक उलझाव के सूक्ष्म वैश्विक स्तर पर ही समीचीन रूप से संवेदित और उपलब्ध किया जा सकता है। तृतीय और चतुर्थ खण्ड में व्याप्त महावीर के तीर्थंकर काल में, जब भगवान पूर्णपुरुष, पूर्णज्ञानी, अप्रतिहतवीर्य लोक-परित्राता और विधाता के रूप में सामने आ रहे हैं, तब प्रभु द्वारा चेतनात्मक रूप से प्रवर्तित इस अतिक्रान्ति का पर्याप्त रूप से ग्राह्य और मूर्त स्वरूप भी सामने आ रहा है। भावक की दृष्टि यदि चुनौती, नकार और खण्डन की न हो कर, स्वीकार, मण्डन, जिज्ञासा और समाधान प्राप्ति की हो, तो साहित्य का बोध और ग्रहण अधिक समीचीन, समग्रात्मक और उद्बोधक हो सकता है। आपके सामने तृतीय खण्ड है। इसे ज़रा महराई से पढ़ने पर, आपको महावीर की अतिक्रान्ति का ठीक अभी और यहाँ के लोक-स्तर पर भी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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