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________________ इस तरह हम देखते हैं, कि पश्चिम अपनी जीवन्त क्लासिकल परम्पराओं से विच्छिन्न नहीं हो सका है, उनके साथ सहज ही जुड़ा हुआ है। अर्वाचीन भारतीय साहित्य में यह जड़ाव, शैक्षणिक विपन्नता के कारण लुप्तप्राय-सा है। इसी से आधुनिक भारतीय साहित्य में, कालजयी कृतियों का अभाव स्पष्ट लक्षित होता है। जैनों की तीर्थंकर की अवधारणा में यह सुनिर्दिष्ट है कि अपने तपस्याकाल की छद्म अवस्था में वह सर्वथा मौन रहता है। लेकिन कैवल्य लाभ करते ही, अचूक रूप से सर्वज्ञ प्रभु के श्रीमुख से धर्मदेशना झरने की तरह फूट पड़ती है, और अन्तिम साँस तक वह धारासार प्रवाहित होती चली जाती है। मगर महावीर के मामले में एक अपवाद घटित हुआ। कैवल्यलाभ के बाद भी, पैसठ दिन तक प्रभु मौन रहे। लोक इस अपवाद से शंकित और आतंकित हो रहा। देव-मण्डल गहरे असमंजस में पड़ गया। समस्त लोक उदास हो कर, भीतर-भीतर हाहाकार कर उठा। · · तीथं कर को अपने प्रथम श्रोता पट्ट-गणधर की प्रतीक्षा थी। लोक के एक मूर्धन्य महाब्राह्मण के इन्तजार में त्रिलोकीनाथ पैसठ दिन चुप्पी साधे रहे। महावीर के वे भावी गणधर थे भगवद्पाद इन्द्रभूति गौतम, जो उस काल वैदिक धर्म के धुरीण स्तम्भ थे। वे उस समय मगध के मध्यमपावानगर में ही, अपने अनुज अग्निभूति और वायुभूति गौतम तथा अन्य आठ ब्राह्मण-श्रेष्ठों के साथ वैदिक धर्म के पुनरुत्थान के लिये पुनर्नवा सोमयाग कर रहे थे। वे श्रमणधारा के प्रचण्ड विरोधी थे, और उसकी बढ़ती हुई शक्ति को दबाने के लिए वैदिक धर्म के एक और महाप्रस्थान का भव्य आयोजन करने में सतत् संलग्न थे। महाश्रमण महावीर का यह सब से बड़ा विरोधी ही, उनका प्रथम श्रोता और उनकी दिव्य-ध्वनि का एकमात्र संवाहक होने की पात्रता रखता था। यही गौतम की अनिर्वार नियति थी। आखिर सौधर्मेन्द्र को अपने अवधिज्ञान से इस तथ्य का पता लग जाता है। वह विद्याबल से एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप बना कर मध्यम-पावा की यज्ञमूमि में जाता है, और कुशल उपाय-युक्ति से किसी तरह इन्द्रभूति गौतम को, विपुलाचल के समवसरण में आने को विवश कर देता है। भगवद्पाद गौतम को, प्रभु के सम्मुख आते ही, उनको सर्वज्ञता का प्रमाण मिल गया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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