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अब तो अवश्य ही प्रभु उसकी लम्बी त्याग सूची को सुन कर प्रसन्न हुए होंगे । और अवश्य ही उसे अपना श्रावक स्वीकार लेंगे ।
• लेकिन प्रभु मेरु की तरह निश्चल और अप्रभावित दीखे । उनकी दृष्टि अनिमेष नासाग्र पर टिकी थी। मानो कि उन्होंने आनन्द के इस व्रत - ग्रहण और महा त्याग को लक्ष्य ही न किया हो ।
आनन्द का हृदय एक गहरा झटका खा कर टूक-टूक हो गया। उसके जी में एक तीखा रोष और विद्रोह-सा घुमड़ने लगा । मन ही मन वह बोला : 'क्या मेरे त्याग का कोई मूल्य नहीं, अर्हन्त महावीर की दृष्टि में ?'.
और अकस्मात् तत्त्वलीन अर्हन्त वाक्मान हुए :
'जो वस्तु मूल में ही तेरी नहीं, उसका त्याग कैसा, देवानुप्रिय आनन्द ? ये जो करोड़ों हिरण्य- रौप्य और माणिक - मुक्ता तूने अपने अपने निधानों में बटोरे हैं, तो उसकी ख़ातिर तूने करोड़ो मनुष्यों को वंचित, तृषित, शोषित, पीड़ित रक्खा है । करोड़ों को भूखे नंगे रख कर ही तू कोट्याधिपति हुआ है, देवानुप्रिय ! क्या यह सम्पदा तेरी है, जो तू इसे त्यागने का दम्भ करता है ?"
और भगवान चुप हो कर एक-टक आनन्द को देखते रहे। फिर बोले :
'पूछता हूँ, जो बारह कोटि हिरण्य द्रव्य तेने रक्खा, वह क्या तेरा है ? और जो अनन्त कोटि हिरण्य द्रव्य तेरे पास है ही नहीं, उसका त्याग कैसा ? ये सारी भोग-सामग्रियाँ और सम्पदाएँ जो तेने त्याग दीं, वे क्या तेरी हैं ? और जो सर्वश्रेष्ठ भोग-सामग्रियाँ तेने रक्खीं, वे क्या तेरी हैं ?'
भगवान क्षणैक चुप रहे। प्रश्न वातावरण में मँडलाता रहा । आनन्द काँप आया, उसे कोई उत्तर न सूझा। फिर सुनाई पड़ा :
' इस परमा सुन्दरी शिवानन्दा को तुमने रक्खा, वह क्या तुम्हारी है ? क्या तुम उसको कभी भोग सके हो, क्या उसे त्रिकाल में भी कभी भोग सकोगे ? और नारी क्या केवल तुम्हारी भोंग्या होने के लिये है ? अपने सिवाय अन्य को भोगना स्वभावतः ही शक्य नहीं, फिर उसका त्याग कैसा, आनन्द ? शिवानन्दा को तुमने भोग्य माना, अन्य नारी मात्र को त्याज्य माना । किन्तु इनमें से कोई मूल में ही तुम्हारी भोग्या नहीं । तो भोग और त्याग, ग्रहण और निवारण किसका करते हो ? वेश्या, कुमारी, बाला या विधवा के भोग और त्याग का निर्णय क्या तुम्हारे हाथ है ? क्या वे अपने आप में कोई नहीं ? तुम्हें क्या अधिकार उन्हें ग्रहण करने या त्याग देने का ? उन पर अपने अहम् और स्वामित्व की मोहर मारना
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