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________________ १३० पर सूरज की रक्ताभ किरण फूट पड़ी । · · · महाराज ने अपने सर को अपनी ही बांहों में ढलका पाया ।उनका अन्तस्तल आरपार बिंध गया। - 'तट पर खड़ी महारानी पुकार रही थीं : "दिन उग आया, प्रभु, चलिये चैत्य-कानन में विहार करने की बेला आ पहुंची।' महाराज एक विचित्र द्वाभा में खोते से महारानी के साथ चलने लगे । रात भी नहीं है । दिन भी नहीं है। उनके अन्तर में कोई तीसरी ही बेला बाहर आने को सुगबुगा रही है । अखण्ड मौन में दोनों साथ-साथ चले जा रहे हैं । बाहर तपोवन तपे हुए हिरण्य की आभा से दीपित है, लेकिन मगधेश्वर की आँखे अपने भीतर ही जाने क्या खोजती चली जा रही हैं। विहार करता-करता राजयुगल 'मंडित कुक्षि' नामक चैत्य से गुज़रा । महाराज एकाएक बहिर्मुख हो आये । देखते क्या हैं, कि एक वृक्ष के मूलदेश में एक अति सुन्दर सुकुमार युवा दिगम्बर स्वरूप में समाधिस्थ है। देखकर महाराज का हृदय सहसा ही मर्माहत हो गया। चलते-चलते वे ठिठक गये । एक टक उस तरुण तपस्वी को निहारते रह गये । मन ही मन वे सोचने लगे : अरे, स्वर्ग की कल्प-कुसुम शैया त्याग कर यह कौन देवकुमार, मर्यों की पृथ्वी पर ऐसी कठोर तपस्या करने को उतर आया है? अपने स्वर्ग में इसे किस सुख की कमी रह गयी? क्या अपनी देवांगना की केसर-कोमल बाँहों में भी इसे जी चाहा सुख न मिल सका ? जानना चाहता हूं, इसके मन में ऐसी कौनसी व्यथा समायी है, जो यह अपनी सोने की तरुणाई को यों मिट्टी में मिला रहा है। .. युवा तपस्वी कायोत्सर्ग से फिर काया में लौट आये। उनकी आँखें दूर पर खड़े युगल की ओर उठीं। वीतराग स्मित के साथ वे सर्व चराचर के अंश रूप राजा-रानी को भी सम्यक दृष्टि से देखते रहे। तपस्वी के युगल चरणों में नमन कर, प्रदक्षिणा देकर, न बहुत दूर, न बहुत पास खड़े रह कर, सम्राट श्रेणिक ने पूछा : 'हे आर्य, ऐसी कोमल कुमार वय में तुमने ऐसा उग्र तप क्यों धारण किया है? रत्नों के पलंग पर, फूलों की सेजों में क्रीड़ा करने लायक सौन्दर्य और यौवन ले कर, विजन अरण्यों की कण्टक-शैया पर क्यों उतर आये हो ?' 'इसलिये राजन्, कि मैं अनाथ था। मैंने पाया कि कोई आत्मीय और मित्र यहाँ नहीं है। कोई अपना नहीं है । मुझे पूर्ण सहानुभूति और अनुकम्पा कहीं न मिल सकी । इसी से मैं इस संसार से अभिनिष्क्रमण कर गया।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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