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________________ १२८ 'तुम्हारी '!' 'अपनी चेला को क्यों लज्जित करते हैं? मैं कहाँ चली गयी हूँ !" 'तुम्ही जानो, रानी ।' 'छोड़िये मुझे, अपने बाहुबल से अर्जित विशाल मगध साम्राज्य की प्रभुता को देखिए । राजगृही के पण्यों में 'स्वयम्भू-रमण समुद्र' के रत्न परखे जाते हैं । उसके सुरम्य उपवनों की चाँदनी रातों में, देव-देवांगना रमण करने को उतरते हैं । उसके विपुलाचल पर तीर्थंकर महावीर का समवसरण विहार करता है । उसके राजपथों पर धर्मचक्र प्रवर्तमान है। महाराज बिंबिसार श्रेणिक ऐसी तीर्थ - भूमि के सम्राट हैं । उन्हें किस बात की कमी है ? " 'चेलनी जो इस साम्राज्य से निर्वासित हो गई है !' 'अपने भीतर के अन्तःपुर में आओ, देवता, मैं तो वहाँ चिरकाल से तुम्हारी प्रतीक्षा में बैठी हूँ ।' 'मुझे वहाँ लिवा ले चलो, प्राण । मेरे बस का अब कुछ भी नहीं रहा 'चलिये न कल सवेरे, 'सम्यक - उपवन' में विहार किये कितने दिन हो गये । वहां के 'अन्तर-मणि सरोवर में तुम्हारे साथ जल-क्रीड़ा करने को जी चाहता है । केतकी -कुंजों की पराग शैया पर वहाँ मृग युगल परम केलि में लीन रहते हैं !' ऐसे किसी उपवन या सरोवर का नाम तो अपने साम्राज्य में हमने नहीं सुना, देवी ।' 'सम्राज्ञी ने सुना है' ! कल अपने 'सहस्त्रार - रथ' पर आपको वहाँ लिवा ले चलूँगी । चलेंगे न मेरे साथ ?' 'वहाँ कस्तूरी मिलेगी ?" 'अथाहों को थाहोगे, तो मिलेगी !' 'तुम्हारी आँखों की इस गहन कजरारी रात में आज कहाँ रहना होगा, प्राण ? ' 'चलनी के कमल - कक्ष का द्वार, आज रात देवता के पग-धारण की प्रतीक्षा करेगा ।' और अपने हीरक नूपुरों की झलमलाती झंकार से पूनम की चाँदनी में लहरे उठाती हुई, महारानी चेलना देवी धीरे-धीरे चली गयीं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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