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'सत्य विचित्र ही है, वत्स । पाप न देख, आत्मा देख । अपमान में नहीं, स्वमान में रह । एक मात्र पाप है, अज्ञान । आलोचना औरों की नहीं, अपनी ही कर आयुष्यमान् !'
... मन्दिर की दीवारें बोल रही हैं। देवार्य तो वैसे ही चुप खड़े हैं। गोशालक सुन कर दिङमूढ़ है ।
•• वह अनुताप-विह्वल हो आया है । आँसू झरती आँखों से वह श्रीगुरु-चरणों में ध्यानस्थ हो गया ।
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