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________________ कि तभी एक सुन्दरी युवती चिल्ला पड़ी : 'अरे इधर देखो, हाय-हाय, कोन में देवता प्रकट हो गये हैं . . ! हमारा पूजोत्सव सार्थक हो गया।' एक और आवाज़ : 'देवता ने हमारी पूजा से प्रसन्न हो कर दर्शन दे दिये।' सबकी निगाहें आनन्दाश्चर्य से स्तब्ध, कोने में देख उठीं । एक वृद्ध घूर. कर बोला : 'अरे ये तो वैशाली के देवांशी श्रमण वर्द्धमान कुमार हैं। और यह आयुष्यमान इनका कोई सेवक शिष्य जान पड़ता है . . . । इसे क्षमा कर दो।' ___ गोशालक त्राण पाकर मेरी एक जंघा के सहारे आ ढुलक रहा । सारे नरनारी जन भूमिसात् प्रणत हुए। 'भन्ते, हमारी आराधना की यही रीति है । कुल-परम्परा से चली आई है। भगवान का कोई अपराध हुआ हो, तो क्षमा करें।' ‘अनेकान्त है मुक्ति मार्ग...!' मन्दिर के देवासन पर से उत्तर ध्वनित हुआ। गुम्बद में से प्रतिध्वनि हुई ‘सोऽहम् ...सोऽहम् . . .सोऽहम् !' स्थविर नर-नारी असमंजस में स्तब्ध हो रहे : अरे ये देवार्य बोले, कि हमारे देवता बोले ? मुझे निश्चल, मौन देख उनके आश्चर्य का पार न था । और उनके देवता तो आज तक बोले नहीं कभी । अपूर्व घटा है कुछ.. । 'निश्चय ही हमारे पितर देवता हमारे पूजा-नृत्य से प्रीत होकर आंज शब्दायमान हुए हैं। हमारी पीढ़ियों की साधना-आराधना सार्थक हो गई !' मन ही मन वे मुदित -मगन हो रहे । ___ उपरान्त अबूझ भाव से हम दोनों की वन्दना कर, स्थविर जन चुपचाप आविष्ट से अपने घर को लौट गये। 'भन्ते, इन पाखंडी पापियों की आपने भर्त्सना भी नहीं की। मेरा उन्होंने घोर अपमान किया, फिर भी आपने उन्हें क्षमा कर दिया । अखण्ड ब्रह्मचारी हो कर, आपने इन व्यभिचारियों की कामुक पूजा का समर्थन किया ?' 'इनके मन में व्यभिचार का विकल्प नहीं। व्यभिचार शब्द ही इन्हें अनजाना है। इनका काम आत्म-काम है । इनका लक्ष्य आत्म-रमण है।...' 'आप तो विचित्र हैं, स्वामी !' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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