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रुष्टं, क्षणिकं तुष्टं है । किसी भी कषाय की ग्रंथि इसमें बँध नहीं पाती । निपट पानी है। काले के साथ काला, धौले के साथ धौला । संसारी अस्तित्व का.जीताजागता, चलता-फिरता व्यंगचित्र है। यह जगत इसे रास नहीं आया । सो कोई दुनियावो चेहरा अपना यह बना नहीं पाया । अपने किसी विलक्षण चेहरे की खोज में है। भीतर-बाहर एक है। कोई कपट-कूट, मायाचार इसमें नहीं । इस दुनिया का यह नहीं । यहाँ इसकी कोई हस्ती नहीं । अस्मिता नहीं । जानने को आकुल है कि 'कौन हूँ मैं ?' आत्मा है यह : सहज ही जिज्ञासु, मुमुक्षु । स्वतंत्र ।
· · ·चौमासा बैठ गया है । वर्षायोग नालन्दा में ही निर्गमन हो रहा है। मगध के सम्राट-सम्राज्ञी प्रायः आ कर अनुरोध कर जाते हैं, कि श्रमण उनके भोजन को प्रसाद करें। सो क्या वह मेरे हाथ है ? चुप रहता हूँ । सुनता हूँ, महारानी चेलना नित्य राजद्वार पर द्वारापेक्षण करती हैं । पर भिक्षुक कभी उस राह नहीं आया ।
मास-क्षपण हो गया : एक मास निराहार ही बीत गया । पारण राजगह के विजय श्रेष्ठि के यहाँ हुआ । सर्वस्व-त्यागी श्रावक है वह । अर्जन कर संचय नहीं करता। कोटि सूवर्ण-द्रव्य निर्धनों को हर दिन दान कर देता है। उदन्त फैला है, श्रमण ने उसके घर आहार लिया, तो उसके आँगन में रत्न-वृष्टि हुई ! आश्चर्य प्रकट हुए। मुझे तो कुछ पता नहीं ।
उदन्त सुनकर गोशालक विस्मित है । सोच रहा है -प्रतापी है यह निगंठ । जिसकी भिक्षा यह ग्रहण कर ले, उसी का द्वार सुवर्ण से भर उठता है । यह सुने या न सुने, मैं तो इसका शिष्य हो रहूँगा। इसके प्रसाद से अन्न-भोजन तो पा ही जाऊँगा। • सो आ कर वह मेरे निकट प्रणत हुआ और बोला :
'अनुगत हूँ, भन्ते । आपका शिष्य हूँ। दीन जन को अपना सेवक स्वीकारें । आपका क्या प्रिय करूँ, भन्ते ?'
मैं सामायिक में तल्लीन था। उसे कोई उत्तर न मिला । पर देखता हूँ अब वह हर समय मेरा अनुसरण करता रहता है। ताक में रहता है, कि उसे कोई सेवा. बताऊँ, तो वह धन्य हो जाये । पर मुझे तो कोई सेवा दरकार नहीं । यह शरीर स्वयम् ही अपनी सेवा कर लेता है । पराश्रय मेरा स्वभाव नहीं। किन्तु गोशालक मेरे आसपास मॅडलाता रहता है । चुपचाप हर समय मुझे निहारता रहता है। कही से भी रूखा-सूखा पा कर जीवन-यापन करता है । अपने में रहता ही नहीं । अहर्निश उसका जी मुझी में लगा रहता है । चाहे जब आ कर कहता है :
'शरणागत हूँ, भन्ते । मेरे एकमेव आश्रय हो । संसार में मेरा कोई नहीं। . . मैं किसी का नहीं · ।'
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