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________________ उसी महानदी गंगा के तट पर आ खड़ा हुआ है। सहस्राब्दियों के इतिहासों को इसकी लहरों में उठते-मिटते देख रहा है। इसकी उत्ताल तरंगों में हिमवान के शृंगों की ऊँचाइयां गल-गल कर बह रही हैं। वे इसके गर्भ की गहराइयाँ होने को विवश हो गई हैं । संसार और निर्वाण इसकी कुंवारी ओढ़नी में एकाकार झलकते दीख रहे हैं। इसके स्निग्ध उजले बालुका तट में मेरे पैर ठहर नहीं पा रहे हैं। इसके शीतल सीकरों से तटवर्ती तरुमालाएँ धुल-धुल कर कैसी स्निग्ध और प्रांजल लग रही हैं । इसकी लहरों की लयात्मकता, उनकी पल्लव-पों में चित्रित हो गई है। .. क्षितिज तक फैलकर इसका वक्षमण्डल इसके परम प्रियतम समुद्र का आभास दे रहा है। आवाहन है कि इस गंगा को पार करूँ । चाहूँ तो अपनी बाहुओं से इसका संतरण कर सकता हूँ। चाहूँ तो इस पर चल सकता हूँ। . . पर नहीं, नियति कुछ और ही दीख रही है। पास ही कई लोकजन आ खड़े हुए हैं। पर पार जाने के लिए वे नाव की प्रतीक्षा में हैं। इन्हें नाव देनी होगी : और अकेले नहीं, इन सब के साथ उसी नाव में मुझे भी गंगा पार करनी होगी। · · तभी सिद्धदन्त नामक एक नाविक ने अपनी एक विशाल नाव तट पर लगा दी। एक ही छलांग में मैं नाव पर आरूढ़ हो गया । अनुसरण में अन्य सारे यात्रिक भी नाव पर चढ़ आये । मृदु-मन्द फिर भी क्षिप्र गति से नाव गंगा पर खेलती-सी बहने लगी। सिद्धदन्त नाव की कोटि पर खड़ा है । उससे भी आगे नाव के अन्तिम छोर पर प्रलम्ब बाहु खड़ा हो गया हूँ । सिद्धदन्त की हुंकारों से प्रोत्साहन पाकर नाव के दोनों ओर उसके पंक्तिबद्ध मल्लाह तेज़ी से डाँड़ चला रहे हैं। · · 'कि सहसा ही दूर हो रहे तट पर से उल्लू का धृष्ट स्वर सुनाई पड़ा। नाव के यात्रियों में एक निमित्तज्ञानी खेमिल भी था। उसने उच्च स्वर में टोका : 'सावधान, यह यात्रा निर्विघ्न नहीं होगी। योगिराट वर्द्धमान रक्षा करें। . ।' नाव कुछ ही दूर आगे बढ़ी होगी, कि अचानक पूर्व दिशा में गहरे बादल घुमड़ने लगे। तेज़ पानी भरी आँधी बहने लगी । देखते-देखते एक प्रचण्ड तूफान में तट और दिगन्त दृष्टि से ओझल हो गये । वायु के प्रबल थपेड़ों से उछलते जल के सिवाय और कहीं कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था। घटाटोप जल की उद्दाम तरंग-लीला में नाव चारों ओर से ढंक गई । · · · देख रहा हूँ, आवर्तक नामा जलाप्लावन घटित हुआ है। शुद्ध जलतत्व को उसके समस्त परिणमनों के साथ, अपने समक्ष नग्न खड़ा देख रहा हूँ। शुद्ध और नग्न जल-द्रव्य । अपने सारे रहस्यों और गहरावों का अनावरण करता वह सामने आ रहा है। पराक्रान्त है उसका नर्तन । उसके पदाघातों से जल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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