SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२ काल पा कर तुम्हारे पिता लोकान्तर कर गये । तुम इस आश्रम के कुलपति हुए । ' तुम्हारी आत्मा सदा गहरे और ग्रंथिल अहंघात से पीड़ित रहती । तुम्हारा आहत अहं बाहर अकारण क्रोध के ज्वालामुखी-सा फुंफकारता रहता । लोग तुम्हारी छाया तक से डरते थे । मनुष्य से लगा कर, पशु-पक्षी और वनस्पतियाँ तक तुम्हारे पदाघात से आतंकित हो उठतीं । इसी से लोक में तुम चंडकौशिक के नाम से कुख्यात हो गये । तुम्हारी चिर आहत चेतना ने जीने के लिए आश्रम के उद्यान में सहारा खोजा । एक अन्ध मूर्च्छा से रात-दिन तुम्हारा चित्त अपनी वाटिका में आसक्त रहने लगा । दारुण अधिकार - वासना से प्रमत्त हो कर तुम इस वनखण्ड के एक-एक पत्ते तक की रखवाली करते रहते थे । इस उपवन के फूल, फल, मूल, पल्लब की ओर कोई आँख उठा कर भी देख नहीं सकता था । कभी कोई अजान व्यक्ति भूले-चूके भी यहाँ का नीचे पड़ा सड़ा फल या पत्ता भी उठा लेता, तो तुम लाठी और कुल्हाड़ी ले कर उसके पीछे दौड़ पड़ते । तुम इतने शंकालु हो गये कि निर्दोष आगंतुकों को भी अपने उद्यान का चोर समझ कर, उन्हें ढेले और पत्थर उठा कर मारते । आखिर एक दिन ऐसा आया कि आश्रमवासी सारे तापस एक-एक कर वहाँ से चले गये । तुम नितान्त एकाकी हो गये । तुम्हारे अकेलेपन में, तुम्हारा आत्मसंताप और भी तीव्रता से तुम्हें दहने लगा । तुम्हारे क्रोध का आखेट बनने वाला भी कोई न बच । निरालम्ब और अनुत्तरित तुम्हारी उस कषाय की वेदना को मैं इस क्षण भी अनुभव कर सकता हूँ । हाय, तुम्हारा क्रोध तक अनाथ हो गया ! सर्व के संहारक : पर कितने बेचारे और दयनीय तुम ! स्वयम अपने ऊपर दया करने जितनी आर्द्रता से भी वंचित । अपने ही अमित्र । अपने आपको प्यार करने से भी मजबूर । इस बीच जाने कैसी विषम दुश्चिन्ता से पीड़ित तुम, आश्रम छोड़ कर इस वनखण्ड के दूरगामी झाड़ी-झंखाड़ों में भटकने लगे । सो कई दिनों से उपवन को अरक्षित जान कर श्वेताम्बी के कुछ राजपुत्र यहाँ आये । बन्दरों की तरह उछलकूद करते वे सारे उपवन में छा गये । चुन-चुन कर वे सारे फल खा गये । वृक्षों को कुल्हाड़ियों से काट-काट कर उन्होंने टूटी डालों, पत्तों, फूल-फलों से सारी भूमि को छा दिया । अचानक कुछ ग्वालों ने तुम्हें खबर दी कि, पूर्वे एकदा तुम्हारे द्वारा अपमानित श्वेताम्बी के राजपुत्र, तुम्हारे उद्यान का ध्वंस कर रहे हैं, और अपने अपमान का बदला भुना रहे हैं । भीषण क्रोध से हुँकारते हुए तुम आये और एक खरधार कुल्हाड़ी लेकर उन्हें मारने दौड़े । बन्दरों की तरह कूदते-फाँदते वे सारे किशोर पलक मारते में वहाँ से पलायन कर गये । तुम्हें अपने प्रहार के लक्ष्य तक का भान नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy