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शैया-साहचर्य को एक रात तुम्हारे निकट समर्पित हुई। . 'तुम्हारे अजेय ब्रह्मचर्य को देख, वह स्तंभित रह गई । वह तुम्हारे पूर्णकाम प्रेम की दासी हो गई । अपने कामरूप देश के जालंधर नगर में तुम्हें उड़ा ले गई । वहाँ अनेक विद्याओं की स्वामिनी जाने कितनी सुन्दरी योगिनियाँ तुम्हें समर्पित हुई । अपनी विपुल सम्पदा उन्होंने तुम्हारे चरणों में डाल दी। अपने ब्रह्मचर्य के क्षुरधार तेज से तुमने उन सब के हृदय जीत लिये। .. निदान, अढलक रत्न-सम्पदा लेकर एक साँझ तुम अपने नगर लौट आये । पर अपने घर को ध्वस्त खंडहर पा कर तुम्हें काट मार गया । देहरी पर तुम्हारी ब्राह्मणी की प्रतीक्षारत आँखें कहीं न दीखीं । पता चला कि विरह-पीड़ा और धनाभाव से ब्राह्मणी जाने कब परलोक सिधार गई । उस असह्य आघात से तुम्हारे अन्तरकपाट खुल गये । तुम्हारा जन्मजात विरागी चित्त पूर्ण विरागी हो गया। विक्षिप्त की तरह तुम वन-कान्तारों में भटकने लगे । अचानक वहाँ पाँच सौ मनिसंघ सहित विचरते धर्मघोष नामा महाश्रमण से तुम्हारी भेंट हुई। उनसे प्रतिबोध पा कर तुम प्रवजित हुए । अस्खलित श्रमण-चर्या में रहते हुए तुम अपूर्व तेज और महिमा में प्रतिष्टित हुए ।
पर हायरे मानव हृदय, तुम्हारा उत्थान ही तुम्हारा पतन हो गया । बड़ी दुरूह, निगूढ़ और अचिन्त्य होती है, आत्मोत्थान की यात्रा । बहुत ऋजु-कुंचित और चक्रावर्ती है उसका विकास-पथ । उत्कर्ष की चूड़ा पर पहुँच कर भी कोई आत्मा कब अपकर्ष के पाताल में आ गिरेगी, सो केवली के सिवाय कौन जान सकता है। नौ ग्रैवेयक और सर्वार्थसिद्धि जैसी आत्मोन्नति की ऊर्ध्व श्रेणियों पर आरूढ हो कर भी कभी-कभी आत्माएँ, नारकी और तिर्यंच योनियों तक में आ पड़ती हैं। ___ सो तुम्हारे तपतेज की महिमा ने अनजाने ही तुम्हारे भीतर जाने कव अहंकार जगा दिया । तुम प्रमत्त विचरने लगे । एक दिन तुम्हारे एक क्षुल्लक शिष्य ने इंगित किया कि तुम्हारे पैरों तले कितने ही मेंढकों के बच्चे कुचल कर मर गये हैं। दोषारोप सुन कर तुम क्रोध से उन्मत्त हो उठे । तुम दौड़ कर अपने शिष्य पर प्रहार करने गये · · । बीच में खड़ी एक चट्टान से टकरा कर तुम्हारे मस्तक का मर्मप्रदेश फट गया । अति आर्तरौद्र ध्यान से मर कर, ओ पथ भ्रष्ट योगी गोभद्र, तुम ज्योतिषी देवों में उत्पन्न हए । वहाँ देव निकाय की ऋद्धियों को भोगते हुए काल पा कर, तुम इस कनक-खल आश्रम के वासी, पाँच सौ तापसों के कुलपति की भार्या के गर्भ से जन्म लेकर, उसके कौशिक नामा पुत्र हुए । तुम्हारे पिता लोकविख्यात ऋषि थे। उनके ज्ञान, तप और तेज की कल्याण-छाया में आ कर भवारण्य में भटकी अनेक आत्माएं शांति-लाभ करती थीं। आये दिन यहाँ अनेक दूर देशान्तरों के श्रमण, तापम और आत्मकामी जन अतिथि होते थे। यज्ञ की मंत्र-ध्वनियों और मुगन्धों से इस वनप्रदेश के वृक्ष, लता-गुल्म, पशु-पक्षी सदा प्रफुल्लित रहते थे।
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