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________________ नर्जन्य की स्तब्धता में किसी अज्ञात नट की छाया-खेला चलने लगी . । संसारी प्राणियों की आत्मा में आदिकाल से बिद्ध पुंजीभूत भय, प्रचंडतर आकारों में लम्बायमान होता हुआ मेरे चारों ओर ताण्डव नृत्य करने लगा। __ मेरे पैरों के नीचे की धरती घसकने लगी। ऊपर से आकाश फटता दिखाई पड़ा। शून्य की खंदक में अधर टँगा रह गया हूँ। रह-रह कर मेरी नसों में किसी अदृष्ट का दुनिवार पद-संचार हो रहा है। रोंगटे कीलों की तरह खड़े हो जाते हैं। रक्त में बिजलियों के विस्फोट हो रहे हैं। अपनी काया में उठते हिल्लोलों को देख रहा हूँ। लेकिन चेतना का लंगर किसी अतल-अमूल में पड़ा है। और पैर मेरे मन्दराचल में गड़े हुए हैं। · ·और उन्नत मस्तक, उद्भिन्न छाती के साथ निवेदित हूँ। उत्सर्गित हूँ। · · ·सहसा ही स्तब्ध दीपालोक में, वृषभ पर एक कज्जल गिरि जैसी दुर्दण्ड भैरवमूर्ति सवार दिखाई पड़ी। उसमें रह-रह कर अग्नि की सिन्दूरी धारियाँ सँपलियों-सी लहरा कर विलीन हो जाती हैं। वज्र निनाद से धरती दहल उठी। और एक घोर रव सुनाई पड़ा : ' 'ओरे उद्धत मनुज-पुत्र, तेरा ऐसा साहस ! शूलपाणि यक्ष का नाम नहीं सुना, क्या रे नादान? मेरी शक्ति को ललकार रहा है? मेरे प्रताप को चुनौती देने वाला तू कौन ? मैं तेरी जाति को निर्मूल करके ही चैन लूंगा। . . 'मेरी व्यथा को तू नहीं जानता, पाखण्डी! जान भी नहीं सकेगा।' मन्दिर के गुम्बद में से उत्तर गूंजा मेरा : 'जानता हूँ, मित्र, तेरे मर्म की यातना को। आत्म-संक्लेश के नरकागार मे मुक्ति नहीं चाहेगा, बन्धु ?' 'मुक्ति' · · ? तू मुझे मुक्ति देने आया है, क्रूर, कृतघ्नी मनुष्य की सन्तान! दूर हट मेरे सामने से, या फिर अपने काल का आलिंगन कर · · !' मुझे अडिग देख कर, यक्ष घोर अट्टहास कर उठा। सारी सृष्टि थर्रा उठी, और आकाश विदीर्ण होने लगा। मेरे पैरों में भूकम्प के हिलोरे दौड़ गये। और उनके बीच मैंने अपने को अकम्प लौ की तरह स्थिर देखा। . . और देखा कि ग्रामजन अपने बन्द घरों में बैठे थरथरा रहे हैं : और कह रहे हैं--निश्चय ही अब शूलपाणि ने उस सुकुमार श्रमण पर खड़ग प्रहार किया है। ___ मुझे अटल और अप्रतिहत खड़ा देख कर, फिर दुर्दान्त गर्जना करता हुआ यक्ष, अग्निबाण की तरह सनसनाता हुआ, जैसे गुम्बद को भेद कर पार हो गया । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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