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________________ किया गया है । साँझ होते न होते, मन्दिर निर्जन हो जाता है । पुजारी भी अपने घर चला जाता है । कोई भटकते कापालिक, साधु, कार्पटिक हठपूर्वक यहाँ रानिवास करते हैं, तो सबेरे उनकी लाश ही मिलती है । बड़ा दुर्दान्त और भयंकर है यह यक्ष । आप लोकनाता सुकुमार योगी हैं। आपका जीवन हमारी सम्पदा है । हम पर दया करें, और यहाँ वास न करें, भन्ते !' __ मेरे निःश्वास में से ध्वनित हुआ। सस्मित वदन मैंने सामने के मंदिर पर दृष्टिपात किया। अपलक उसे अवलोकता रहा। लोकजन भयभीत, स्तंभित देखते रह गये। मैंने बेखटक दाँया हाथ उठा कर, मंदिर की ओर निश्चल अंगुलि-निर्देश किया।· · महावीर का आवास, अन्यन नहीं, इसी मंदिर में हो सकता है। मेरा निश्चय पत्थर की लकीर के समान लोकजनों के हृदय पर अंकित हो गया। वे समझ गये कि यह लिपि अटल है : इसे टाला नहीं जा सकता।· · · और अप्रतिरुद्ध गति से चलता हुआ, मन्दिर की सीढ़ियां चढ़ भीतर प्रवेश कर गया। लौटते हुए ग्रामजनों के भयभीत चिन्ताकुल चेहरे मैं देख सका। - 'हे भव्यो, कब तक भय से यों भागे फिरोगे ? .. मन्दिर के एक कोने में मैं प्रतिमायोग आसन लगा कर ध्यानस्थ खड़ा हो गया । • सन्ध्या घिर आई। पुजारी धूप-धूना करके शंख, घंटा, घड़ियाल और नक्काड़े के चण्डनाद के साथ वृषभ देवता की आरती करने लगा।...एकाएक नीरवता व्याप गई। पुजारी ने मेरे निकट आ कर अनुरोध किया : 'देवार्य, मन्दिर का त्याग करें। यक्ष देवता मनुष्य की छाया तक से घृणा करते हैं। यहाँ रात रह कर, कोई जीवित नहीं निकला।' मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। अपने पैरों में मैंने मेरु को अनुभव किया। मन्दिर निर्जन निचाट हो गया। घनीभूत अन्धकार । सूनकार सन्नाटा। देवासन के पाद प्रान्त में बहुत मद्धिम एकेला दीया। बाहर साँय-सांय, भाँयभाय करती सांझिया हवाएँ। बज चुके नक्काड़े की अवशिष्ट प्रतिध्वनि । भय-भैरव का धौंसा अखण्ड नाद से मेरी धमनियों में बजने लगा। बाहर की पतझारों में किन्हीं वन्य जीवों की पगचा। पीपल और उदम्बर वृक्ष की विरल पत्तों वाली शाखाओं में खड़खड़ाहट । किसी अदृश्य सत्ता की खड़ाउओं की गम्भीर आहट । • 'सहसा ही उत्कट घोष के साथ मेघ गड़गड़ाने लगे। ईशान कोण में विद्युल्लेखाएँ तड़कने लगीं। मन्दिर का पिण्डीभूत अन्धकार धसक आती दीवारों सा मुझ पर टूटने लगा। दीवारों में द्वार खुलने लगे। हजारों भूतप्रेतों की भीषण आकृतियाँ उनमें से सवारी की तरह निकलने लगीं। भयावह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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