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प्रथम अध्याय में ही अच्युतेन्द्र के पूर्व जन्म-स्मरण की चेतना-प्रवाही अभिव्यक्ति में, कुण्डलिनी की सम्वेदन-ऊर्जा को मैंने स्पष्ट क्रियाशील अनुभव कर लिया था। इसके अतिरिक्त महावीर के अनुक्रमिक आत्मबोध और आत्मचिन्तन में जो परम्परागत शास्त्र भाषा का दायरा तोड़ कर, एक स्वतन्त्र मौलिक आत्मानुभूति की भाषा शक्य हो सकी है, वह भी भगवती कुण्डलिनी का ही सहज कला-विलास है। उपसर्गों के अतिप्राकृतिक उपद्रवों के धारसार नाटकीय चित्रण में, और अन्ततः केवलज्ञान की ओर अग्रसर महावीर की समस्त अन्तर-यात्रा के चित्रण में, तथा उसके लिये मौलिक भाषा-आविष्कार की स्फुर्णा पाने में, कुण्डलिनी महाशक्ति ही एक मूलस्रोत के रूप में मेरे सामने आती है। यहाँ तक कि जिन आत्म-स्थितियों का मैंने चित्रण किया है, वे कई बार स्वयम् मेरे भीतर अचानक आविर्भूत हो गई हैं। __इस प्रकार यह रचना मेरे लिये केवल साहित्य के लिये साहित्य-सृजन, या कला के लिये कला-सृजन हो कर न रह सकी। अनायास ही यह मेरे सूक्ष्म भीतरी आत्मोत्थान का साधन, और उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम भी बन गई। इसने मुझे यहाँ तक प्रतीति करा दी कि कवि-रचनाकार केवल अपने काव्य के रचना-माध्यम से ही आत्म-साक्षात्कार और परमात्म-प्राप्ति की भूमिका तक भी पहुंच सकता है। वैसे परम्परा में भी सन्तों का सारा काव्य-साहित्य इस सम्भावना और अनुभव की साक्षी देता है। इस रचनाकाल में एक और भी विलक्षण अनुभव मुझे हुआ। मेरी जन्मजात मानसिक संरचना में ही बद्धमूल ऐसी कई ग्रन्थियों और कुण्ठाओं का भी अनजाने ही मोचन हो गया, जो इससे पूर्व मेरी रचना और प्रगति में सदा बाधक रहीं। इस तरह एक अजीब मानसिक रूपान्तर और सुदृढ़ आत्मनिष्ठा मुझे उपलब्ध हो गई।
शक्तिपात और नित्यानन्द या मुक्तानन्द मेरे मन पर्यायवाची हैं। अपने प्यारे गुरुदेव मुक्तानन्द स्वामी को स्मरण किये बिना कैसे विरम सकता हूँ। शक्तिपात के रूप में, परम भागवदीय अनुगृह उनसे मुझे प्राप्त हुआ। उससे अक्षय्य रस, सौन्दर्य, प्यार और शक्ति के स्रोत जैसे आपोआप भीतर खुल पड़े। और उनका आप्लावन मेरे भीतर कितना गहरा है, और उससे कैसी नित-नूतन सम्भावनाएं अनायास मेरे भीतर घटित और क्रियाशील दीख पड़ती हैं, उसको कैसे बयान किया जाये। एक तरह से 'अनुत्तर योगी' उसी अनुभूति की एक ईमानदार दस्तावेज़ है। जिन आत्म-वल्लभ श्रीगुरु से ऐसी दिव्य वस्तु प्राप्त हो सकी, उनके प्रति कृतज्ञता से मेरा हृदय निरन्तर उमड़ता रहता है। मन ही मन बार-बार उन्हें प्रणाम करता रहता हूँ। और ज्यादातर तो उनसे अलग अपने को महसूस ही नहीं कर पाता। तदाकार रहता हूँ अनजाने ही उनके साथ, और उसी भंगिमा से जीवन-जगत को मुक्त भोगता
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