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________________ ३६१ भावों और उच्छावासों का जो तुमुल टकराव और उलझाव है, उसके बीच मैं सहज स्पन्दित हूँ। फिर उनके बीच का जो सहज सुलझाव और सम्वाद है, वह भी मैं ही हूँ । तुम्हारे सम्भोगों में, देह और देह, आत्मा और आत्मा के एकीकृत होने की जो निष्फल स्पर्शाकुलता है, प्रवेशाकुलता है, वह भी मैं ही हूँ । ओ नर-नारियो, तुम्हारे रज और वीर्य के संघात, सम्मिश्रण और गर्भाधान के बीच जो आप्लावन है, वह मेरे ज्ञान की एक तरंग मात्र है, और मैं उससे तत्काल उत्तीर्ण नितान्त आत्मस्थ हूँ । घृत- कुम्भित निगोदिया जीवों के एक श्वास में अठारह बार जन्ममरण करते अन्ध संसार का मैं अनवरत संगी और साक्षी हूँ । नरकों की अकल्प्य दुःख - राशि में आलोड़ित, सर्वकाल के जीवों की असम्भव में पछाड़ 'खाती चेतना के लिये मैं भव्यता और सम्भावना का शाश्वत सूर्योदयी किनारा हूँ । तुम्हारी चरम निराशा के अन्धकार में, मैं आशा का अकम्पमान एकमेव दीपक हूँ । अखण्ड काल-परमाणु में, इस अनन्तकाल व्यापी सृष्टि-लीला के भीतर मैं अपने ज्ञान- शरीर के साथ निरन्तर खेल रहा हूँ । इस सब में सर्वत्र, सर्वकाल उपस्थित, उपविष्ट, संस्पर्शित, सम्प्रवेशित होकर भी, उसी एक कालांश में इस सब से असम्पृक्त, मैं केवल स्वयम् आप हूँ । सर्वत्र, सर्व में रमणशील हो कर भी, तत्काल सर्वार्थ सिद्धि के अनुत्तर विमान की इस रेलिंग पर अविचल खड़ा हूँ । ठीक इसी क्षण लोक के केन्द्रस्थ जम्बू-वृक्ष तले अकम्प बैठा हूँ। और तभी लोकाकाश और अलोकाकाश के बीच के तीन वातवालयों की सन्धि पर, निर्वात दीपशिखा की तरह, निस्तब्ध खड़ा हूँ । सर्व का एकमेव, अक्षुण्ण, नित्य उपस्थित साक्षी, ज्ञाता द्रष्टा मात्र । स्रष्टा होकर भी, अस्रष्टा । क्रियाशील हो कर भी, अक्रियाशील । कर्त्ता भी अकर्त्ता भी । कोई किसी का कर्त्ता नहीं, कोई किसी का अकर्त्ता नहीं । कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान की सारी विभक्तियों के बीच अविभक्त एकाग्र मैं । सब केवल अपने-अपने कर्त्ता, धरता, हरता हैं। फिर भी परस्पर अभिग्रहीत, उपग्रहीत, परस्पर में संक्रमित । अन्ततः अपने ही में निष्क्रान्त । मैं, केवल मैं, संसार भी, निर्वाण भी । सात तत्व और नौ पदार्थ, सब केवल इस आत्मानुभूति में आत्मसात् हैं। कहीं और कोई नहीं । बस, केवल हूँ । 'हूँ' और 'नहीं हूँ' से परे, एकमेव उपस्थिति । ...अपने शरीर के आरपार देख रहा हूँ । धूल-माटी, मांस-मज्जा का वह मेरा भारिल शरीर जाने कब कहाँ झड़ गया । मेरा अन्नमय कोश धान्यखेतों की उर्वरा माटी में बिला गया है । मेरा प्राणमय कोश बिखर कर हवा 1 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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