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________________ सत्ताहीन अलोकाकाश का अन्धकारों में फैला विस्तार । हूँ' और 'नहीं हूँ' की इस ख़तरनाक़ कगार पर एकाकी अविचल उपस्थित हूँ। . ___ और देख रहा हूँ, एकबारगी ही सष्टि की. अविराम क्रियाशील कर्मशाला की सारी भीतरिमाओं को। जो मानो उलट कर मेरी पद्मासनासीन हथेलियों में आ पड़ी हैं। उनमें परमाणुओं का धारासार प्रवाह । उस प्रवाह में, परमाणु अनायास जाने कब असंख्य स्कन्धों में अनुबन्धित हो रहे हैं। जीवों के अकारण क्षण-क्षण बदलते ऊँचे-नीचे भावों के अनुरूप वे स्कन्ध अकल्पनीय प्राणि-रूपों में पीण्डित हो रहे हैं। एक अनिर्वच सन्धि के दोनों ओर, ये परमाणु और स्कन्ध कहीं जीव-योनियों उर्वरित हो रहे हैं, कहीं पौद्गलिक आकार-प्रकारों में रूपायित हो रहे हैं। जीव और पुद्गल, चेतन और अचेतन का भेद-विज्ञान यहाँ निर्णायक नहीं । चर और अचर, चेतन और अचेतन के बीच यहाँ जो निगूढ़ सम्भोग कालातीत भाव से चल रहा है, वह मात्र कैवल्य-ज्योति द्वारा गम्य है, केवल अनुभव्य है, कथ्य नहीं। उसका कथन मात्र अन्ततः मिथ्यादर्शन है। . पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु का जो पंचीकरण और विसर्जन तात्विक आकाश . में सतत चल रहा है, वह मेरी ज्ञान-चेतना की एक तरंग मात्र में समयातीत घटित हो रहा है । परमाणु से स्कन्ध, और स्कन्ध से विराट् चराचर पिण्डों तक का जो सर्जन और विसर्जन सतत संसरायमान है, उसे अपनी ही देह की प्रत्येक परमाणु सन्धि में प्रत्यक्ष देख, जान और अनुभव कर रहा हूँ। दो परमाणुओं के स्कन्धित होने के बीच का जो अदृश्य अवकाश है, वहाँ मैं उपस्थित हूँ। स्कन्ध से पिण्डीकरण के बीच का जो अकल्प्य अन्तराल है, वहाँ मैं उपस्थित हूँ। नाना भावों के अनुरूप कर्म-रज के रक्त में रूपान्तरित होने की जो धारणातीत प्रक्रिया चल रही है, उसमें मैं निरन्तर खेल रहा हूँ। रक्त के मांस में घनीकरण, और मांस के अवयवों में रूपायन के बीच की जो गोपन सन्धियाँ हैं, उनमें मैं सतत प्रवर्तनशील हूँ। मांस के अस्थि-बन्ध होने तक के बीच का जो गुह्य संसार है, उसकी हर परिणमनपरम्परा में मैं अनायास संक्रमणशील हूँ। अस्थियों के मज्जायित होने के बीच का जो मंथन है, उसमें मैं चक्रायमान हूँ। और मज्जा के देहाकृत होने तक के बीच की जो अनवबोध्य रिक्तता है, उसमें मैं एक अनवरत सभरता की तरह ओतप्रोत हूँ। ओ त्रिलोक और त्रिकाल के सारे प्राणियो और मानवो, तुम्हारी एक साँस और दूसरी साँस के बीच का जो अभेद्य अवकाश है, उसमें केवल मैं ही हूँ। तुम्हारे अन्ध मैथुन और प्रणयालिंगन में जो व्याकुल साँसों का संकुलन, संकर्षण और संघर्षण है, उसमें मैं अविचल उपस्थित हूँ। तुम्हारे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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