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में रह-रह कर कोई देवमुख झलक मारता है। उसके मस्तक पर सर्प कुन्तलों की तरह लहरा रहे हैं। उसके दोनों कन्धों पर झूलते दो फुकारते भुजंगम । एक उसके मस्तक पर फणामंडल तान कर पीठ पर लटक गया है। दूसरा उसे सर से पैर तक मापता हुआ, उसके उपस्थ पर आरूढ़ हो नीचे की ओर धावित है। एक मानवाकार महापक्षी।
"पहचान रहा हूँ तुम्हें, गरुड़-देवता। समझ रहा हूँ, मुझे अपने प्रज्ञालोक में ले जाने आये हो । तुम्हारे भूमण्डल, जल मण्डल, वायु मण्डल, अग्नि मण्डल, आभा मण्डल में उन्मुक्त विहार करना चाहता हूँ। इन्हें पार करके ही तो अपने आत्म के सहस्रार में आरोहण कर सकूँगा।
मैं तुम्हारे चरणों को अपने कन्धों पर धारण करने को प्रस्तुत हूँ। तुम्हारी जंघाओं की तात्विक पृथ्वी मेरे सम्मुख तर आयी है। कि मैं उस पर पगधारण करूं। लो, मैं आया। मैं अवरूढ़ हुआ ! 00
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