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पुलकाकुल कदम्ब, तमाल, चम्पक, कचनार के गहन वन । उनके गहरावों में झूमती, लहराती कादम्बिनी के अनाघ्रात अंधियारे । उनमें जाने कितनी देखी-अनदेखी प्रियाओं के अन्तःपुर। सिसकारियों के सप्तकों में, चिर आलिंगित रति और काम का अन्तहीन रमण-संगीत । ओआगत, विगत, अनागत के सारे नर-नारी युगलों को अपने रोम-रोम में क्रीड़ा करते अनुभव कर रहा हूँ। और पराग की चादरों में रभसलीन हंस-मिथुन, कपोत-मिथुन, सर्प-मिथुन, मयुर-मिथन : केवल मेरा शरीर, जो किसी भी क्षण होता है, और नहीं भी होता है। मेरे अपने ही में लीन होते शरीर में ये सब सारांशित होकर पूर्णकाम हो गये हैं।
ओ सृष्टि के स्थायी भाव, स्रोतोमूल देवता! तुम हो केवल मेरे ही चैतन्य की एक तरंग । प्राणि मात्र की रक्त-शिराओं में तुमने अपने को धनुषाकार तान रक्खा है। तीनों काल में तीनों लोक, तुम्हारे पुष्पाघातों से घायल विव्हल होते रहते हैं। और नाना रूपाकारों में, नाना सौन्दर्यों में, संचारित हो रहे हैं। वे यों बिलस रहे हैं, कि संसार की धारा अक्षुण्ण प्रवाहित है। यह सब चैतन्य का ही चिद्विलास है। चैतन्य के बिना भाव कहाँ, स्फुरण कहाँ, रमण कहाँ, परिणमन कहाँ ? ___ सुनो काम, तुम मेरे लिये मेरी आत्मा के अतिरिक्त और कोई नहीं। मेरे ही चेतस् चित्त में से तरंगित होकर तुम मेरी एकमेव आत्मा को ही अनन्त सम्भावनों में व्यक्त करते हो। तुम्हारी उद्दाम क्रीड़ाओं में भी मैं अपने ही आत्म की अचिन्त्य महाशक्ति का अनुमान पाता हूँ। ___ओ मेरे आत्म के ही विश्वसंचारी वीर्य, देश-काल के पटलों में जी भर खेले तुम अनन्त काल में। लेकिन ओ विदेह, तुम्हारी शरीरिणी रति तुम्हें सदा धोखा दे गई। हर बार तुम्हें रमण की मझधार में अतृप्त छोड़ कर, वह मोहिनी तुम्हारे हाथों में से जाने कहाँ फिसल जाती है ! 'डरो नहीं काभ, मैं तुम्हारा अपहरण करने नहीं आया। मैं तुम्हारे राज्य को मिटाने नहीं, ऊपर उठाने आया हूँ। मैं तुम्हें जला कर भस्म करने नहीं आया, तुम्हें असीम अनाहत में परिपूरित करने आया हूँ।
आओ काम, मेरे आत्मज, तुम्हारी शाश्वत रति, मेरे अन्तःपुर में तुम्हारी व्याकुल प्रतीक्षा कर रही है।"
और लो, कामराज्य का इन्द्रधनुषी नीहार लोक अनायास बीच से विदीर्ण हो गया। वह मेरे दोनों ओर सिमटता चला आया। नीलाभ दिगन्त का विराट् मण्डल सामने खुल पड़ा है। निस्तब्ध निर्जन । अचानक उसकी कोर पर विशाल हेमाभ पंख पसारे यह कौन उड़ा आ रहा है ? उसके पंछी-मुख
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