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________________ ३०५ वश में और अपनी ही नहीं थी। वह अपने ही आपको अजनबी और परायी थी। तब वह तुम्हारी कैसे हो सकती थी? तुम्हारा समस्त चित्त उसमें लगा था, और उसका चित्त कहीं और ही लगा था। तुम उसके ध्यान में ही एकाग्र जी रहे थे, और वह उस नग्न अकिंचन पुरुष के ध्यान में केन्द्रित जी रही थी, जो किसी एक का होने को जन्मा ही नहीं है। जो हर किसी का है, इसी से किसी का नहीं है। हमारे गाढ़तम आलिंगन में गुथ कर जों रमणी हमारी साँसों में मूच्छित, समर्पित और विजित हो रही है, वह कब हमारे आलिंगन से बाहर हो गई,है, पता ही नहीं चलता। हर आलिंगन, हर मैथुन में हम उसी एक परम एकत्व और अनन्यत्व को ही तो खोज रहे हैं, जो हर आत्मा की परात्पर वासना है, और जिसे पाये बिना अनादि-अनन्त काल में भी, हमें चैन नहीं। पर क्या गाढ़तम आलिंगन और चरमतम मैथुन में भी वह एकत्व उपलब्ध हो पाता है ? टूटती हुई रक्त की धारा और चुकती हुई साँसों से आगे, उस आलिंगन और मैथुन की गति नहीं । जानो विश्व-विजेता श्रेणिक बिंबिसार, प्रत्यक्ष देखो आत्मन्, निर्धान्त देखो : जन्मान्तरों की इन सारी मिलनाकुल यात्राओं में, चरम-परम सौन्दर्य और प्यार के परात्पर आलिंगनों और मैथुनों में भी, क्या तुम्हारा वह अनादि अभीप्सित, अचूक मिलन तुम्हें उपलब्ध हो सका? __ जो देख रहा हूँ समक्ष, प्रत्यक्ष, वह यह है कि एक-दूसरे में एकत्व लाभ करने की सारी कसकों, तड़पनों, कशमशों के बावजूद, तुम सब कितने अकेले, एकाकी हो। कितनी अकेली हो गई है चेलना! कितनी अकेली है नन्दा! कितनी अकेली है सालवती । कितनी अकेली है आम्रपाली । कितने अकेले हो तुम ! कितना असंग एकाकी, मरणान्तक संघर्ष कर रहा है सिद्धार्थ गौतम, बोधिलाभ की अगम राहों में, मृत्यु की दुर्भेद्य घाटियों में ! और तुम, श्रेणिक, उसमें एक और अवलम्ब खोज रहे हो ? और देखो, कितना अकेला, एकाकी, अकिंचन, अकिंचित्कर है निग्रंथ ज्ञातृपुत्र महावीर ! वह तुम्हारी भूमि के अतलान्त पातालों में उतर गया है, कि काश, वह सत्ता में कोई ऐसा द्वार मुक्त कर सके, जिसकी राह वह तुम सबकी आत्माओं में अचूक प्रवेश पा सके। कोई ऐसा वातायन, कोई ऐसा कक्ष, कोई ऐसी शैया, जहां हर रमण और रमणी, उस आलिंगन और मैथुन में एकत्व लाभ कर सकें, जिसमें फिर अन्य और अन्यत्र की विरहव्यथा सदा को निर्वाण पा जाये। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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