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इसी से स्थिति निश्चिति, शांति, तृप्ति मन का स्वभाव नहीं । मन स्वयम् अपने स्वभाव से हार कर, उद्विग्न होकर, बार-बार अपने ही को अतिक्रमण करने जाने को छटपटाता दिखायी पड़ता है । क्योंकि अपनी अल्पता में उसे चैन नहीं, विराम नहीं । क्योंकि यह चेतस् ( मन ) स्वयम् भी तो चैतन्य का ही एक प्रस्तारण है-- सत्ता की बहिर्मुख अभिव्यक्ति में ।
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अपनी चरम वेदना में, अपने ही को बिद्ध कर, जब मन सीमाहीन विराट में विस्फोटित हो उठता है, तो जाने कहाँ से अपार ऐश्वर्य के स्रोत फूटते दिखाई पड़ते हैं । भगवती आत्मा के भग-मूल में से ही वैभव का यह अजस्र प्रवाह, सर्वत्र अव्याहत व्याप्त, प्रवाहित अनुभव होता है । वह भगश्वर्यमान 'मैं' ही तो भगवान है ।
'रक्त-मांस की काया से उन अनन्त - सम्भव परमेश्वर को क्या विरोध हो सकता है ? जिसमें सारे द्वंद्वों और विरोधों का विसर्जन है, विकल्प से जो परे है, देह जिसके भूमा समुद्र की एक रूप तरंग मात्र है, उस महत् विराट् को अपनी ही ऊर्जा के एक सहज रूपायन से कैसे इनकार हो सकता है ? स्थिति है, तो अभिव्यक्ति अनिवार्य है, ध्रुव है, तो उत्पाद-व्ययात्मक परिणमन में ही वह प्रमाणित हो सकता है । जिस आत्मा के अणु -अणु में आलोक, वीर्य और सौंदर्य के शतधा झरने अजस्र फूट रहे हैं, वह अपनी महिमा की प्रकाशक, रक्त-मांस की काया को अधन्य कैसे रहने दे सकता है ?
अनन्त गुण- पर्यायवती, अनन्त शक्तिमती महासत्ता में क्या असम्भव है ? ओ भगवती आत्मा, माँ, त्रिशला, यदि तुम्हारी कामना अविकल्प है, तो वह अस्तित्व में सृजित साकार होकर रहेगी । सकारने या नकारने वाला मैं कौन होता हूँ । परम- स्वतंत्र सत्ता पुरुष अर्हत् के अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य में जो अपना परम काम्य रूप तुम ध्याओगी, वही तुम्हारे वक्षदेश में से उत्कीर्ण, उद्भिन्न हो कर तुम्हारी वसुन्धरा पर शाश्वत चलेगा ।
तुम्हारी योनि क्या निरी मांस- माटी का एक क्षणिक अनुबन्ध मात्र है ? जो योनि अनन्त के समावेश और प्रजनन को चीत्कार उठी है, वह तो अन्तरिक्षगर्भा अदिति है । वह सृष्टि का चिरन्तन स्रोत है । उसमें संसार और निर्वाण एक बारगी ही संयुक्त भाव से संगोपित हैं, लीलायित हैं ।
उसमें से उद्विद्ध होकर, अनन्तकाम पुरुष को लोकाकाश के आरपार तुम्हारी इस पृथ्वी पर अविश्रांत, अविराम चलते देख रहा हूँ | तथास्तु त्रिशला !
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