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प्रकृति के साथ एकतान और समरस हो रहूँ । उसे अपनी विरोधिनी नहीं, सम्वादिनी पाऊँ । दिगम्बर हुआ हूँ इसीलिये, कि दिगम्बरी प्रकृति का आमूलचूल उत्संग पा सकूं। उससे पीठ फेर कर नहीं, उसे आलिंगन में लेकर, उसका हृदय जीत सकूं । शीत हवाओं और हिमपातों से देह की त्वचा सूख कर पपड़िया-सी गई थी । वसन्त के मलय वायु का स्पर्श पाकर, झाड़ों की सूखी छालें उतर कर झर पड़ी हैं। उनके तनों और डालों में भीतर का ताजा, कच्चा, नया शरीर उभर आया है । वैसे ही मेरे शरीर की नीरस हो गई त्वचा खिर गई है । स्निग्ध चन्दनी देह उघर आई है । मेरी शारीरिक स्थिति हवा, आकाश, जल हो गई है। वृक्ष, फूल, फल, पशु-पंखी की तरह ही वह भी प्रकृत और स्वाभाविक हो गई है ।
निरन्तर परिव्राजन कर रहा हूँ । अचिरावती तट की यह सारी सुरम्य वनभूमि नवीन पल्लवों से आच्छादित वृक्षों, लताओं, गुल्मों से भर उठी है । उनकी मरकत आभा में अनुभव होता है, जैसे वनस्पतियों का हरियाला रुधिर मेरी शिराओं में बह आया है । नाना रंगी फूलों से लदे कुंजों में होकर गुज़रती हवा, सौरभ और पराग से भाराहुत-सी बहती है ।
और देख रहा हूँ, कि मेरे नव कुसुमित शरीर में से भी एक विचित्र सुगन्ध प्रसारित होने लगी है। इसमें चन्दन भी है, चम्पा भी है, कचनार भी है । इसमें वन- चमेली और जल-जुही की भीनी तरलता भी है । इसमें कपूर, केशर, कस्तूरी की गहरी महक भी है । "
सो. एक अद्भुत वस्तु-स्थिति घटित हुई । तमाम फूलवनों के भँवरे उड़उड़ कर मेरे आसपास गुंजन करने लगे हैं । मेरी ओर से कोई विराधना और विरोध न पाकर, वे बड़े प्यार से मेरे सारे शरीर को छा लेते हैं । मेरे रोम कूपों से उफनती सुगन्ध में मूर्छित होकर, मेरी त्वचा के साथ जड़ित से हो रहते हैं । सुगन्ध और मकरन्द के लिये आकुल उनके प्राण की वासना को तीव्रता से अनुभव करता हूँ । उनकी व्याकुलता के प्रति अपनी देह को शिथिल छोड़ देता हूँ । वे सुगन्ध-लोलुप प्राणी कस-कस कर मेरे शरीर में जहाँ-तहाँ दश करते हैं। मेरे रक्त के सारे रस और सुवास को निःशेष पी जाना चाहते हैं। उनकी मधुर गन्ध-वासना का अन्त नहीं । उस वासना की अग्नि को जी भर सहता हूँ । देह में जहाँ-तहाँ रक्त बह आये हैं । प्राण के जाने कितने अवरुद्ध प्रवाह उसमें खुल पड़े हैं। इन मधुप मित्रों की इस प्राणहारी प्रीति को कैसे नकारूं । सो उन्हें अपनी रोमालियों में मुक्त क्रीड़ा करने देता हूँ। अपने रोमांचन, पुलकन और परस से उन्हें दुलरा देता हूँ। जितना ही अधिक वे दंश देते हैं, मेरे रोमांचन से आलोड़ित होकर मेरा रक्त और भी उमड़ कर उनके प्रति रसदान करता है ।
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