SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५ ही। इस बीच बाहर की इस सृष्टि से उदासीन रहना चाहा है, ताकि स्व-भाव में स्थिर हो सकू । पर लगता है, इससे उदासीन नहीं, इसमें तल्लीन ही हुआ जा सकता है । यानी इससे तदाकार होकर, इसे इसकी सम्पूर्णता में देखू, जानूं, भोगू, जीऊँ। इस बीच इन्द्रिय-दमन की चेष्टा भी की है। मन को मारने का प्रयास भी किया है, कि मनातीत आत्मस्वरूप हो जाऊँ । पर यह मार्ग मुझे धर्म्य नहीं लगा । शन्नुता अरिहंत का धर्म नहीं। अरिभाव का अंतिम हंता अरिहंत पदार्थ का बैरी कैसे हो सकता है। लोक में सब कुछ अपनी-अपनी जगह पर नियोजित है। सारी ही वस्तुओं में धर्म विविधि रूपों में प्रकट हुआ है। अस्तित्व जिस रूप में यहाँ उपलब्ध है, उसके पीछे महासत्ता का कोई अभिप्राय है, अर्थ है, योजना है। उसे नकारने वाला मैं कौन होता हूँ। वैसा करना अहंकार होगा । सब को यथास्थान स्वीकारूँ, उनके स्वाभाविक परिणमन का निरावेग चित्त से दर्शन करूँ, यही एकमात्र सम्यक् स्थिति जान पड़ती है। इन्द्रियां या मन भी अपनी जगह पर अपना स्वाभाविक काम कर रहे हैं। वस्तुएँ अपनी जगह पर विविध पर्यायों में अपनी अनन्तता को प्रकाशित कर रही हैं। इनके बीच अनाविल दर्शन-ज्ञान का एक स्वाभाविक सम्बन्ध है। उसका साक्षात्कार करना होगा। उसको तोड़ना, सत्ता के द्रव्यत्व को विच्छिन्न करना है : उसका विरोध करना है। वह वस्तु धर्म का विद्रोह है। इस अनादि-निधन सुन्दर लोक के प्रति विरोध और विद्रोह में कैसे जिया जा सकता है । आत्मस्वरूप होना चाहता हूँ, निःसंदेह । पर इसका यह अर्थ नहीं कि सृष्टि-प्रकृति के स्वाभाविक परिणमन से लड़ाईझगड़ा करूँ। वह तो हिंसा ही होगी न ! वह द्रव्य के स्वभाव-द्रोह का अपराध होगा। मिथ्या-दर्शन और किसे कहते हैं। मन और इन्द्रियों से बैर करूँ, तो वह भी आत्मघात की हिंसा ही होगी । प्रकृति, मन, इन्द्रियाँ, वस्तुएँ, सभी का मित्र ही हो सकता हूँ । इन्द्रियाँ, मन, पदार्थ, सब का परिणमन यथा स्थान सत्य, शिव और सुन्दर है । उनके विरोध में नहीं, सम्वाद में ही सम्यक्दृष्टि जीवन जिया जा सकता है । इन्द्रियों का दमन सम्भव नहीं । मन को मारा नहीं जा सकता । जिस चेतन तत्व आत्मा में से ये स्फुरित हुए हैं, उसमें लय पाकर ही ये सम्पूरित हो सकते हैं। अपने स्रोतोमूल चैतन्य में ही ये अपनी पूर्ण सार्थकता पा सकते हैं। इन्द्रिय और मन का निरन्तर शुद्धिकरण और परिष्कार करके, इन्हें आत्मा के अव्याबाध दर्शन-ज्ञान से आलोकित करना होगा। वैसा अवलोकन और आलोकन अपने प्राण, मन, इन्द्रियों के अवबोधन में अनुभव करने लगा हूँ। ___ अपने इस शरीर को यथास्थान प्रकृति के परिवर्तनों में घटित होते देख रहा हूँ । हेमन्त और शिशिर के तुषारों के प्रति इसे खुला छोड़ दिया था। कि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy