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________________ २४१ तक को तोड़ कर, उस आखिरी अन्धकार रात्रि में खो गये हैं, जिसका अन्त उजाले के सिवाय और हो नहीं सकता। चिन्तित कम नहीं हूँ, पर निश्चिन्त भी कम नहीं हूँ। फिर भी अनिवार्य हो गया है, कि अपने को और अधिक तलाशें, अपनी स्थिति को और अधिक स्पष्ट रूप से समझं। कहीं ऐसा तो नहीं है, कि मेरा पातिव्रत्य खतरे में पड़ गया है ? क्या पति और त्रिलोकपति के बीच कोई खाई सम्भव है ? ___आर्यावर्त की सतियों की तो यही परमोज्ज्वल परम्परा रही है, कि अपने पति के प्रति पूर्ण आत्मार्पण के द्वारा ही उन्होंने स्वयम् परमात्मा को प्राप्त कर लिया । और फिर अपनी आत्मा को भी प्राप्त कर लिया । इसी समपण की राह वे स्वयम् भगवती-स्वरूप हो रहीं। सावित्री ने सत्यवान से बढ़ कर किसी और भगवान को नहीं जाना, नहीं माना, और अपने इस सम्पूर्ण प्यार के बल वह स्वयम् यमराज से अपने पति का प्राण जीत लाई । मृत्युंजयिनी तक हो गई। राधा अपने आराध्य परम प्रीतम कृष्ण से सदा बिछुडी ही रही । पर अपने देवता की आजन्म कुँवारी रानी रह कर, अनन्त काल में भगवान के साथ अभिन्न भगवती हो कर खड़ी हो गई। उसने ब्रह्म-पुरुष के लिंगातीत एकाकीपन के मान को सदा के लिए भंग करके, इतिहास में युगल भगवत्ता का अपूर्व नया मान स्थापित कर दिया। · · · दक्ष-कन्या सती ने अपने पति शंकर की सम्मान-रक्षा की खातिर जीते जी हवन-कुण्ड में कूद कर अपने प्राण दे दिये। और अपनी इस आत्माहुति के बल स्वयम् देवात्मा हिमालय की बेटी हो कर वह फिर जन्मी। और तब] अपनी अटल तपस्या से, दुर्द्धर्ष एकाकी अवधूत महाशिव की समाधि के कैलासशिखर को उसने कपा दिया। और तब स्वयम् कामदेव की सहायता से उसने कामातीत शंकर को सदा के लिए जीत लिया। फलतः आर्यावर्त के लोक-हृदय पर, वे अखण्ड एकल विहारी ब्रह्मचारी शंकर, पार्वती के साथ ही सदा के लिए खड़े हो रहने को बाध्य हो गये ! __ • • 'बोलो महावीर, तुम क्या कहना चाहते हो ? मेरी यह प्रतीति ग़लत तो नहीं? हजारों वर्ष का इतिहास और पुराण इसकी साक्षी दे रहा है। फिर भी तुम चुप क्यों हो, महावीर? भले ही चुप रहो। मेरा यह संकल्प अचूक और अटल है, कि नारी अपने स्वधर्म में रह कर ही तुम्हें प्राप्त करेगी। और इसी के बल वह तुम्हारे मोक्ष-मन्दिर के कपाट बलजबरी तोड़ कर, तुम्हारे बराबर में आ खड़ी होगी। मुझे अपने साथ लेकर चलोगे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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