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________________ १८ १८७ ही प्यार करने की मेरी विवशता को तुमने अन्तहीन कर दिया। अन्तिम अवलम्ब जो बन गया था मेरा, उसने स्वयम् ही, अपनी उस अवलम्बिता को चूर-चूर कर दिया। फिर जो नहीं रह गयी थी, उस लड़की की अवशेष नियति का खेल आरम्भ हुआ। तुम्ही बताओ मान, वह कैसे फिर वैशाली के ऐश्वर्य-महलों की फूल-शैयाओं में लौट सकती थी ? अपनी अन्तिम नियति से टकराये बिना, उसके लिये और चारा ही क्या रह गया था · · ·? नियति-पुरुष इसी को तो कहते हैं ! - - - पहली बार तुमसे मिल कर जब लौटी थी, तो बाहर कुछ भी पाने और खोजने को शेष नहीं रह गया था। सारे ही प्रश्नों और जिज्ञासाओं का एकमेव उत्तर अन्तर के देवालय में मूर्त पा लिया था। विराट् प्रकृति के बीहड़ों में जिसे खोजती फिर रही थी, सहसा ही पाया कि वह जाने कब चुपचाप भीतर आ बैठा है। मेरी भटकनों की उस निखिल चराचर प्रकृति को वह अपने उत्तरीय की तरह धारण किये था। बाहर की यात्राओं के अगम विस्तार, उत्तुंग ऊँचाइयाँ और भयावने गहराव भीतर ही खुल पड़े थे। सो अपने कक्ष में बन्द होकर अपनी सुख-शैया में आँखें मूंदे कई-कई पहर लेटी रहती थी, और अकारण ही सारे अगम्यों में यात्रा एक सुगम खेल की तरह चलती रहती थी। लेकिन जब तुम महाभिनिष्क्रमण कर आरण्यक हो गये, तो अपने अनन्त अभियान के पहले ही पद-संचार से, तुम मेरे बाहर-भीतर के बीच की ओट को छिन्न-भिन्न कर गये । शैया में ही नहीं, इस तन में भी काँटे उग आये। . . . अंग-अंग में नुकीली चट्टानें और तुम्हारे आरोहण के पर्वत-शिखर फूट निकले । बाहुमूल और उरुमूल के गहराव तुम्हारी दुर्दान्त छलांगों के बीच की खन्दकें, घाटियाँ, समुद्र और नदियाँ हो कर फैल गये। तन का अणु-अणु तुम्हारी राह की धूल हो कर रह गया। ... तब बोलो, वैशाली के परकोटों और महालयों की दीवार-छतों में ठहर पाना कसे सम्भव होता। : - पहले की तरह जब निकल पड़ने को हुई, तो पाया कि मेरे स्वैराचार पर पहरे बैठ चुके हैं। पाया कि स्वातंत्र्य की सिरमौर नगरी वैशाली में नजर-कैद हूँ। महल, उद्यान, रथागार, अश्वागार, नगर-द्वार, सर्वत्र ही मुझे गमनोद्यत देख कर प्रतिहारी, रथी, अश्वपाल और प्रहरी, मेरी राह में झुके मस्तक बिछा कर राजाज्ञा के पालन को विवश और मूक दिखायी पड़े। समझ गयी, कि यह सब क्यों हुआ है। तुम्हारे दीक्षा-कल्याणक से लौट कर, माँ और परिजनों ने मेरी जो बेकली और बेहाली देखी थी, उससे वे समझ गये थे, कि अब इस ऐश्वर्यराज्य में मैं ठहर नहीं सकूँगी। मानों कि उन्होंने चीन्ह लिया था कि मेरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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