________________
૧૮૬
सारी पृच्छाओं को फूंक मार कर उड़ाये दे रहा है, यही अपने आप में काफी है मेरे लिये। यही वह आधार है, आश्वासन है, अन्तिम उत्तर है, जो उत्तर नहीं देता, व्याख्या नहीं करता, बस, मुझे अनायास जीवन और जगत में निश्चिन्त भाव से बसाये दे रहा है, रम्माण किये दे रहा है।
- 'यह है तो फिर, यहाँ का कुछ भी क्षण-भंगुर और नाशवान नहीं है। यह है तो क्षय, रोग, शोक, विछोह, जरा-मरण कुछ भी नहीं है। वह सब केवल माया है, भ्रान्ति है। यह है तो जगत के सारे ही सौन्दर्य, प्यार, आनन्द नित्य-सत्य, और अविनाशी हैं। इसके होते निश्चिन्त और सुरक्षित भाव से सत्ता में ठहरा जा सकता है, जीवन-प्रवाह में मछलियों की तरह खुल कर तेरा जा सकता है, खेला जा सकता है। मुक्त पंछियों की तरह स्थिर पंखों से जीवन के इस अनन्त विराट् लीलाकाश में उड़ा और विहरा जा सकता है। · · यह है तो प्रश्न और पूछना समाप्त हो जाता है। एक अन्तहीन आश्वासन और अमरता में घनसार की तरह घुलती ही चली गयी थी।'' 'मानों जन्मान्तरों के बाद उसी रात बेखटक, और पूर्ण निश्चिन्त हा कर सो सकी थी। . . .
लेकिन मानो मेरा वह सुख, तुम से सहा न गया। तुमसे अधिक मेरा ईर्ष्यालु और कौन हो सकता था : और मुझ से अधिक तुमसे ईर्ष्या और किसे हो सकती थी? · · 'यहीं अटक कर, बेखटक हो जाऊँ, यह तुम कैसे सह सकते थे? मानों कि मेरे उस सहारे को तोड़ने के लिये ही तुम वैशाली आये। हजार बहानों से तुमने यह घोषित कर दिया, कि तुम इस सुरम्य संसार को त्याग कर चले जाओगे। एक ही झटके में तुमने अपना ही दिया चैन मुझसे छीन लिया। एक ही भ्रू-भंग में मानों, महावीर ने मेरा वह वर्षमान मुझसे झपट कर छीन लिया, जिसे एक दिन इतने प्यार से उसने मुझ खेल-खेल में ही दे दिया था। मानों कि कह गये तुम : 'वर्डमान-निरपेक्ष होकर जीना होगा तुम्हें, चन्दन !' उल्का के अक्षरों में बीज-मंत्र की तरह तुमने यह बात मेरे चित्त-पटल पर उकेर दी। विपल मात्र में ही तुमने अपने ही दिये धरती और आकाश मुझसे छीन लिये। एक ही ठोकर में तुमने मेरे संसार-पाश को छिन्न-भिन्न कर दिया। 'संसार सारम्' हो कर जो एक दिन मेरे जीवन में आया था, वही उस दिन संथागार से मेरा 'संसारहारी' हो कर प्रकट हुआ।
सोच में पड़ गई, इस मित्रहीन जगत में जिसे एक मात्र मित्र के रूप में पाया था, वही सब से बड़ा शत्रु हो कर सामने आ गया है। तुम्हें प्यार कर सकूँ, यही तुमने मेरे लिए सम्भव न रहने दिया : और तब केवल तुम्हें
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org