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का अचूक उत्तर ! • • ‘बहुत तर्क और कसौटी करके भी, अपने से अन्य, भिन्न, प्रतिकूल तुम्हें अणु मात्र भी कहीं से न देख सकी, ना पा सकी।
चलती बैर पूछे बिना न रह सकी थी : 'फिर कब मिलोगे?' उत्तर में तुम समर्पित हो कर स्वामी हो उठे थे : 'जब चाहोगी ! • • ‘जब पुकारोगी, आऊँगा।' • • एकदम निष्ठुर हो कर लौटी थी : नहीं · · नहीं चाहूँगी, कभी नहीं पुकारूँगी। मौत सामने आ खड़ी हो, तब भी नहीं। · · 'आज इस क्षण जहाँ हूँ, वहाँ से भी नहीं। यमराज को पुकार सकती हूँ यहाँ से, पर तुम्हें नहीं · · तुम्हें हर्गिज़ नहीं । मेरे पैरों की यह बेड़ी और इस तल घर का यह अँधेरा, मुझे तुम से अधिक प्रिय है। क्योंकि यह मेरा अर्जन है, यह मेरा स्वयंवरण है। तुम कौन होते हो मेरे? तुम्हें मेरी आवश्यकता नहीं : तो मुझे भी तुम्हारी आवश्यकता नहीं। मिलन की चाह और पुकार मेरी ही हो, तुम्हारी नहीं ? यही तो कहा था, तुमने उस दिन बिदा के क्षण में । · · 'नहीं, तुम्हारी कृपा की मुझे ज़रूरत नहीं है। · · 'नहीं, तुम्हारी चाहत की भिखारिणी नहीं हो सकूँगी। तुम्हारी वीतरागता तुम्हें धन्य और मुबारक़ रहे। आँसू, दूध, खून, व्यथा से भीगी धरती हूँ मैं : अनुरागिनी धरित्री, तुम्हारी जनेत्री। जिसकी कोख से तुम जन्मे, जिसकी गोद से तुम उठे, जिसकी छाती खूद कर तुम वीतरागता के शिखर पर आरूढ़ हुए हो। · · 'तुम अपने में रहो। मुझे अपने में रहने दो। नहीं, मुझे तुम्हारी क़तई ज़रूरत नहीं है । . . .
.. 'ठीक लग्न-मुहूर्त आने पर एकाएक तुम वैशाली आये। आर्यावर्त का भावी तीर्थंकर, लिच्छवियों का कुल-सूर्य, अपनी प्रजाओं से मिलने आया था उस दिन। मेरी पुकार पर, मुझ से मिलने तुम नहीं आये। · · 'नहीं, मैंने तुम्हें पुकारा भी नहीं था। जो अनवरत पुकार भीतर मची थी, उसे यों चुप कर दिया था, जैसे दीये की लौ पर तर्जनी रख कर उसे मसल दिया हो। · · पर यह कैसे छुपाऊँ कि वह कुचली हुई लौ, जंगल-जंगल दावाग्नि की तरह फैल गयी थी। एक पागल पुकार के सिवाय, और कोई अस्तित्व ही मेरा नहीं रह गया था।
वैशाली के जन-समुद्र पर आरोहण करते, तुम्हारे 'त्रिभुवन-तिलक' रथ में, तुम्हें सिंह-मुद्रा में आरूढ़ देखा। कितने अपरिचित, कितने सुपरिचित, कितने अपने, कितने पराये, कितने पास, कितने दूर तुम एक साथ लगे ! • • ‘रोंया-रोंया रोमांच से रो आया। सारी देह कपूर की तरह प्रज्ज्वलित हो कर गलती ही चली गई। तुम्हारे युगतीर्थ की महाधारा को प्रत्यक्ष सामने से बहते देखा : उसकी एक अज्ञात तरंग हो कर, उसमें चुपचाप विसजित हो रही। · · फिर भी रह-रह कर, रथ में तुम्हारे बायें कक्ष में बैठी दिखाई पड़ रही थी पगली चन्दना !
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