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'ओरे अज्ञानी ऋत्विको, परबलि नहीं, निर्दोष पशुबलि नहीं, आत्मबलि, आत्माहुति, आत्महवन करो । अपने ही भीतर छुपे स्वार्थलिप्सु पशु की बलि दो । स्वयम् अंगिरा, अग्निहोत्री हो कर जन्मे हैं आज मेरी कोख से। वे स्वयम्ही आत्माहुति देते आये हैं । हे ऋत्विको, हे आर्यजनो, इन परम यज्ञेश्वर के चरणों में अपने जन्म-जन्मान्तरों के संचित पशुत्व का बलिदान करो । आ गये मेरे महाकाल पुरुष, आ गये मेरे परम परमेश्वर, आ गये मेरे दिगम्बर, शिवशंकर, भोलानाथ आ गये · · · !' ___इस अनाहत वाणी में, समस्त लोक का प्राण एकीभूत, विश्रब्ध हो गया । सहस्रों आँखों से झरते आँसू एकमेव क्षिप्रा की धारा हो गये। ___.और तभी महाकाल मन्दिर के सुवर्ण-शिखर से प्रतिध्वनि सुनायी पड़ी :
'यथा अन तथा अन्यत्र : जो यहाँ है, वही वहाँ है : जो यहाँ है, वही वहां है ।· · · ·आदिनाथ · · · ·आदिनाथ · · ·आदिनाथ । विश्वनाथ बर्द्धमान विश्वनाथ वर्द्धमान' - 'विश्वनाथ वर्द्धमान !
'इत्थं प्रभव ऋषभोऽवतारी हि शिवस्य मे ।
सतां गतिर्दीन बन्धुर्नवभःकथित स्तव ॥' · · ·और विन्ध्याचल के शिखरों से गुंजायमान हुआ : 'महाकाल महावीर जयवन्त हों, महाकाल महावीर जयवन्त हों, महाकाल महावीर जयवन्त हों।'
· · ·शृंग से शृंग पर डग भरता. एकाकी आर्यावर्त के आरपार चल रहा हूँ। मेरी धमनियों में महाकाल का डमरू बज रहा है। मेरे रक्त की बूंद-बूंद में महाकाली ताण्डव नृत्य कर रही है। ..
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