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जो यहाँ है, वही वहाँ है
विचित्र है यह स्थिति । समय जैसे सिमट गया है । सारा अवकाश भीतर समा गया है । गति एक मात्र, अपनी रह गई है । अन्य सारी गतियाँ मानों उसी का अंश हो गयी हैं। सारे पदार्थ, भूगोल, इतिहास मेरी रक्तशिराओं में तरंगित हैं । चल नहीं रहा, अपने को चलते हुए देख रहा हूँ । अनेक पर्वत, नदी, ग्राम, नगर मेरे चलते पैरों के गोपुरों में से यों गुजर रहे हैं, जैसे बहते पानियों की तहों में जलचर रिलमिलाते दिखाई पड़ते हैं ।
और देखा, कि विन्ध्याचल पार कर रहा हूँ । शाश्वत पर्वत विन्ध्याचल । जिसकी चट्टानों, कान्तारों और जंगलों में लाखों वर्षों की स्थावर, जंगम और मानव पीढ़ियों के उल्लास, संघर्ष, पराक्रम और जयलेखाएँ अंकित हैं । चढ़ते हुए सूर्य के साथ, शीतल सघन वनस्पतियों के लोक वाष्पित हो रहे हैं। उनकी पानीली गन्धों में भवान्तरों की जीवन - लीलाएँ संसरित हो रही हैं। इस हरियाली तरलता में कालातीत हो कर सृष्टि का सारा इतिहास तैरता दिखाई पड़ रहा है । शाश्वती में जिये हुए अपने जाने कितने ही पूर्व जन्मों को इस क्षण जैसे एक साथ सम्पूर्ण जी रहा हूँ ।
अब से सत्ताइस भवान्तरों पहले, अपने पुरूरवा के साथ उसकी भीलनी काली को, अपनी डग भरती टाँगों में अटूट युगल की तरह इस क्षण भी चलते देख रहा हूँ । 'और जी रहा हूँ, अभी और यहाँ, अपनी कुमारावस्था की वह सन्ध्या, जब इसी विन्ध्याचल की चट्टान पर वह कोई एक अनामा काली फिर मिल गई थीं। इस आदिम पर्वत की आत्मा उस दिन देह धारण कर मुझ से मिलने आयी थी । और इस क्षण भी वह मेरी नाड़ियों में स्पन्दित है । अनादिकाल से अब तक का देखा, जिया, भोगा, सहा-स कुछ मानों मेरे रक्ताणुओं की दीवारों पर चंचल चित्रपट-सा उभर आया है । कहीं कुछ टूटा या छूटा नहीं है । एक अटूट जीवन-मेखला को अपने आस-पास परिक्रमायित अनुभव कर रहा हूँ ।
विन्ध्याचल की सर्वोच्च चूड़ा पर खड़ा हूँ। और अपार दूरियों में फैले मालव के सुरम्य हरियाले पठारों को देख रहा हूँ । और कहीं अलक्ष्य में अंकित आद्या नगरी उज्जयिनी मेरे पैरों को खींच रही है। उसके महाकाली
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