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________________ १५९ • • 'शकेन्द्र ने अपने अवधिज्ञान का सन्धान किया । · · · 'ओह, योगीश्वर वर्द्धमान का शरणागत है यह असुर ! हाय, मुझ से भारी अपराध हो गया । मैंने इस पर वज्र प्रहार किया। मेरा वज्र तो क्या, लोक की कोई दैवी, दानवी, मानवी शक्ति इसका संहार नहीं कर सकती । श्री भगवान् के शरणागत को मार सके, ऐसी ताक़त लोक में विद्यमान नहीं। · · तपोबल से बड़ा और कोई बल नहीं !' __ . . 'बेदम, बेतहाशा, आत्मभान भूल कर इन्द्र अपने वज्र को लौटा लाने को भाग रहा है। सब से आगे चमरेन्द्र, उसके पीछे आक्रान्ता वज्र का ज्वालामुखी, और उसके पीछे शक्रेन्द्र मर्त्यलोक की ओर विद्युत्-वेग से धावमान हैं। वज्र चमरेन्द्र के मस्तक पर मंडलाता, ब्रह्मांडीय विस्फोट के साथ अभी-अभी उस पर फट पड़ने को है। · · 'कि लो, विपल मात्र में झींगुर से भी क्षुद्रतर हो कर चमर, 'त्राहिमाम् नाथ, त्राहिमाम् · · ·!' शब्द करता हुआ तपो-हिमाचल महावीर के चरण-युगल के बीच अन्तर्धान हो गया। और वज्र तत्काल एक क्षुद्र चिनगारी को तरह बुझ कर, शक्रेन्द्र की मुट्ठी में समा गया। · · 'सौधर्मपति पश्चात्ताप से विव्हल हो कर, त्रिलोकीनाथ के श्रीचरणों में भूमिसात् हो रहा। फिर कातर स्वर में प्रार्थी हुआ : ___ 'अज्ञानवश मुझ से परम भट्टारक प्रभु का अपराध हो गया। समस्त चराचर के माता-पिता, परित्राता के शरणागत पर मैंने वज्र प्रहार किया। क्षमा करें, भगवन् !' _ 'सष्टि में सब कुछ, यथास्थान, यथोचित घटित हो रहा है, शक्रेन्द्र । महासत्ता की इस द्वंद्वात्मिका लीला से पार हो कर ही आत्माएँ, अपने स्वरूप में प्रतिक्रमण कर सकती हैं। यहाँ कौन किसी का न्याय कर सकता है ? आत्म-निर्णय कर, आत्मन्, सर्व-निर्णय आप ही हो रहेगा !' समाधीत हो कर शक्रेन्द्र लौट गया। तब श्रीचरण गुहा से निकल कर, वह क्षुद्र कुंथु हो रहा चमरेन्द्र सम्मुख हुआ। अनेक विध पश्चात्ताप-विलाप करता वह लघु से लघुतर हुआ जा रहा है। ___'नाथ · · 'नाथ · · 'मुझ पापी से अधिक क्षुद्र लोक में कोई नहीं । निगोदिया जीव भी नहीं। इस ग्लानि और पीड़ा में अब नहीं जिया जाता, स्वामी !" 'क्षुद्र भी नहीं, महत् भी नहीं। परिमाण और तुलना से परे, अपने निज रूप में, तू अतुल्य है आत्म न्, अनुपम ! केवल तू, केवल मैं। अनन्त, अमाप केवल आप जो न पुण्य है, न पाप ।...विंध्याचल के विभेल ग्राम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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