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________________ १५८ 'अमर, अपना अस्तित्व चाहे, तो यहाँ से भाग जा। यथास्थान रह, आयुष्यमान्।' __ चमरेन्द्र इस सौम्यता से अवमानित हो, सौगुना अधिक कोपायमान हो, धमपछाड़ करने लगा। · · 'शकेन्द्र की कमनीय भौहें प्रत्यंचा-सी तन उठीं। अविकल्प, निरुद्वेग भाव से उन्होंने चमरेन्द्र पर अपना वज्र फेंका। जैसे प्रलयकाल की अग्नि सहसा ही प्रकट हो उठी है। तमाम सागरों के गर्भ में संचित विद्युत्राशि और बड़वानल एक बारगी ही फूट पड़े हैं। · · 'तड़ . . . तड़ · · 'तड़ · · तडित् टंकार करता हुआ वह वज्र चमरेन्द्र के मस्तक पर भन्नाता आ रहा है। सूर्य को सहने में असमर्थ उलूक की तरह आँखें मीच, पत्ते की तरह थरथराता चमरेन्द्र, वंट-बँदरिया की तरह शीर्षासन करने लग गया है। · · ·और अब वह, चित्रा को देख जैसे चमरी मृग भाग जाता है, वैसे ही महावीर के चरण आँखों में उजाले वहाँ से सुसुमारपुर की ओर पलायमान है। . . . ___· · ·और अपने पीछे उसे सौधर्म विमान के हजारों सामानिक देवों की धिक्कार वाणी सुनाई पड़ रही है। 'अरे ओ सुराधम, अपनी दुर्गति को तू स्वयम् देख । मेंढ़क हो कर सर्प के साथ मुठभेड़ की तूने। भेड़ का बच्चा तू, हाथी के साथ भिड़ गया। हाथी का यह दुःसाहस, कि अष्टापद पर आक्रमण करे? सर्प की ऐसी दुर्मति की गरुड़ को लील जाना चाहे ? ओ अनात्मज्ञ, अपनी स्थिति को जाने बिना तूने प्रकृति के परम नियम-विधान को तोड़ना चाहा, इसी से तेरी ऐसी दुर्दशा हुई है। अहंकारवश ब्रह्मांडी देह धर कर आया था तू, पर क्षुद्र रजकण की लघु देह में रहना भी तुझे मुहाल हो गया। · · देवेन्द्र होने की स्पर्धा की तूने, परम सत्ता ने तेरी आसुरी महाशक्ति भी तुझ से छीन ली। धिक्कार है, सौ बार धिक्कार है, तेरे इस दुर्घण अहंकार को। सत्यानाश की खंदक के सिवाय, अब तुझे कहीं शरण नहीं, ओ जघन्य पापात्मा !' · · देख रहा हूँ, शक्रेन्द्र का वज्र दिगन्त व्यापी ज्वालाएँ विस्तार करता हुआ चमरेन्द्र का पीछा कर रहा है, और चमर लघुतम देह हो जाने को छटपटाता, अपनी अन्तिम नियति की ओर, गति से परे भागा जा रहा है। शक्रेन्द्र के विस्मय का पार नहीं । सोच में पड़ा है वह, किसी भी असुर की यह सामर्थ्य नहीं कि वह प्रकृति की मर्यादा को तोड़ सके, देवेन्द्र की पद्मवेदी को पदाक्रान्त कर सुधर्मा सभा में पैर धर सके, शक्रेन्द्र की इन्द्रकील का ताड़न कर सके। इस विभूति का स्वामी हूँ, फिर भी यह अपनी नहीं लगती । यह व्यवस्था मेरी नहीं, स्वयम सत्ता की है। मैं यहाँ कोई नहीं होता । फिर वह कौन ताक़त है, जिसके बल यह असुर सत्ता की मर्यादा तक को तोड़ गया ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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