SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४४ कंठ-स्वर अति मृदु, मधुर और महीन है । ऐसा स्वराघात, कि श्रवण मात्र से कोई मोह की मूर्छा-रात्रि में सदा को सो जाये। सुरम्य अंगों वाली उन रमणियों ने, रति के अचूक विजयी मंत्रास्त्र समान संगीत आरम्भ किया । चौमासे की वेगीली नदियों की अन्तःसलिला प्रकृत लयों के साथ, वे गान्धार ग्राम से अनेक रागिनियाँ गाने लगीं। देवांगनाएँ क्रम और उत्क्रम से, अपनी वीणा की लहरीली सुरावलियों में स्वर, व्यंजन और धातुओं के मांत्रिक स्वरूप को मूर्त करने लगीं। गन्धर्व-बालाएँ कूट, नकार और धोंकार से मेघ-रव उत्पन्न करती हुई त्रिविध मृदंग बजाने लगीं। बहुत ही महीन, कोमल मीड-मूर्च्छनाओं में आरोहित और अवरोहित है यह संगीत की धारा। इसमें असीम दूरियों के आमंत्रण हैं। विरहिणी आत्मा का जन्मान्तर गामी संवेदन है। अज्ञात मिलन-कक्षों की कचनार-शैयाएँ हैं। सर्वस्वदान के लिये व्याकुल-विभोर देह, प्राण मन की आत्महारी विदग्धता है। सुरतिसंघर्ष में देह को चूर-चूर कर निःशेष हो जाने की एक कचोट है। आत्ममिलन की तड़प से अनात्म के जड़ तमस-तटों में टकराने की घायल वेदना है, आह-कराह है। इसमें बेकाबू वासना की आकाश-दाहक ज्वालाएँ हैं। इसमें अज्ञात अन्तवंदना से घुमड़ते समुद्रों की गहराइयाँ हैं। · · 'तट पर खड़े रह कर देखने और अनुभव करने का आनन्द इतना बड़ा है, कि मोह के इस अथाह तिमिर-सागर में डूब नहीं पाता हूँ, खो नहीं पाता हूँ। · · देख रहा हूँ इस सामने नृत्य करती अप्सरा को। अंगभंग और मुद्राओं के नृत्याभिनय से यह अपने कंचुकी-बन्ध तोड़ती हुई, शिथिल केशपाश को बाँधने के बहाने अपने बाहुमूलों को दिखा रही है। यह तिलोत्तमा, दिशावेधी कटाक्षों के साथ, प्रबल अंग-संचालन द्वारा अपनी देह में न समाते लावण्य को बेबस बहा रही है। निवेदन की वेदना के छोर पर, अनेक अंगमरोड़ों से अवयवों को अधिकतम उभार कर हवा में आलेखित किये दे रही है। उत्सर्ग की चूड़ान्त छटपटाहट में पहुँच कर, इस उर्वशी ने अपने उरोजों को कुलाचलों की तरह उद्भिन्न कर, अन्तरिक्ष में उत्तीर्ण कर दिया है। .. 'ऐरावत क्षेत्र की यह बाला शर-सन्धान के लिये खिचे धनुष की तरह दोहरी हो गई है। इसके पीछे ढलके माथे के विपुल चिकुर पाश ने इसकी नूपुर-शोभित एड़ियों को बाँध लिया है। इसके आलोड़ित वक्षोजकुम्भों से उमड़ता क्षीर-समुद्र इसके उत्तोलित नाभि-कमल में सरोवर बन कर थमा रह गया है। और अद्भुत है यह विदेह क्षेत्र की पद्मिनी । इसकी आत्मा की पारदर्शी उज्ज्वलता, इसके अभिन्न भाव से जुड़े उरु-द्वय के सन्धि-मूल में, अनिर्वार संवेग के निर्झर-सी उफन रही है। · · 'देख रहा हूँ, कामात रमणीदेह के सारे ही अंगों और भंगों में, उत्तोलन और आलोड़न में, अपने को पाने के लिये बैचेन आत्मा की चैतन्य वासना ही तो हिल्लोलित है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy